उत्तर बिहार में कांग्रेस का अस्तित्व संकट में, मुजफ्फरपुर से विजेंद्र चौधरी आख़िरी उम्मीद
मुजफ्फरपुर से प्राप्त समाचार के अनुसार, उत्तर बिहार में कांग्रेस पार्टी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। कभी जिस पार्टी का झंडा इस क्षेत्र की हर विधानसभा में बुलंद हुआ करता था, आज वही पार्टी सिमटकर एक सीट तक सीमित रह गई है। उत्तर बिहार की कुल 71 विधानसभा सीटों में कांग्रेस के पास केवल एक विधायक — मुजफ्फरपुर विधानसभा क्षेत्र से विजेंद्र चौधरी — बचे हैं।
विजेंद्र चौधरी बने कांग्रेस की अंतिम उम्मीद
पार्टी ने एक बार फिर विजेंद्र चौधरी पर भरोसा जताते हुए उन्हें मैदान में उतारा है। हालांकि, राजनीतिक पंडितों का कहना है कि उनकी राह इस बार आसान नहीं होगी। विपक्षी दलों, विशेषकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद), ने अपने मजबूत प्रत्याशी उतारे हैं।
विजेंद्र चौधरी की जीत पर मुजफ्फरपुर ही नहीं, बल्कि समूचे उत्तर बिहार की कांग्रेस संगठन की साख निर्भर मानी जा रही है।
2010 के बाद कांग्रेस का लगातार पतन
वर्ष 2010 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए सबसे काला साबित हुआ। जिले की सभी 11 विधानसभा सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने के बावजूद पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली। न सिर्फ हार, बल्कि अधिकांश प्रत्याशी तीसरे या चौथे स्थान पर रहे।
उसके बाद 2015 में कांग्रेस ने अपने बूते चुनाव लड़ने की हिम्मत तक नहीं जुटाई। यह वही कांग्रेस थी जिसने 1970 के दशक तक बिहार में शासन किया और जिसके नेता पूरे प्रदेश की राजनीति की दिशा तय करते थे।
1977 से पहले था कांग्रेस का गढ़
मुजफ्फरपुर और आसपास के जिले कभी कांग्रेस के अभेद्य किले माने जाते थे। वर्ष 1977 से पहले यहां कांग्रेस के प्रत्याशी लगभग हर सीट पर विजयी होते रहे। लेकिन आपातकाल के बाद की राजनीति ने समीकरण पूरी तरह बदल दिए। जनता पार्टी, फिर भाजपा और क्षेत्रीय दलों के उभार ने कांग्रेस को हाशिए पर ला खड़ा किया।
पिछले चुनाव में सिर्फ एक जीत, बाकी सन्नाटा
2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जिले की तीन सीटों — मुजफ्फरपुर, पारू और सकरा — से अपने उम्मीदवार उतारे थे। इनमें से केवल मुजफ्फरपुर से विजेंद्र चौधरी ने भाजपा उम्मीदवार सुरेश कुमार को मात दी और जिले में पार्टी का नाम फिर से ज़िंदा किया।
यह जीत प्रतीकात्मक थी, लेकिन इससे कांग्रेस कार्यकर्ताओं में थोड़ी ऊर्जा का संचार हुआ। अब वही सीट कांग्रेस के भविष्य की कसौटी मानी जा रही है।
उत्तर बिहार में कांग्रेस की दुर्दशा
उत्तर बिहार की 71 सीटों में इस बार कांग्रेस के 18 प्रत्याशी मैदान में हैं। हालांकि, इनकी राह कठिन मानी जा रही है। अधिकांश क्षेत्रों में त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय मुकाबला है, जिसमें कांग्रेस अक्सर तीसरे या चौथे स्थान पर रहती है।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि पार्टी की संगठनात्मक कमजोरी, स्थानीय नेतृत्व की कमी और जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं की निष्क्रियता ने कांग्रेस को इस स्थिति तक पहुंचाया है।
कांग्रेस के सुनहरे दिनों की झलक
1972 में पारू से वीरेंद्र कुमार सिंह, कांटी से शंभु शरण ठाकुर, और साहेबगंज से नवल किशोर सिन्हा जैसे दिग्गज नेताओं ने कांग्रेस को विजय दिलाई थी। 1985 तक यह सिलसिला किसी न किसी रूप में जारी रहा, लेकिन 1990 के बाद कांग्रेस के हाथों से उत्तर बिहार फिसल गया।
मुजफ्फरपुर जिले की राजनीति में अब कांग्रेस का नाम सिर्फ स्मृतियों में गूंजता है, और वास्तविक शक्ति समीकरणों में उसका प्रभाव नगण्य हो चुका है।
स्थानीय जनमानस और बदलती राजनीतिक सोच
उत्तर बिहार के मतदाताओं की प्राथमिकताएं अब जातीय और क्षेत्रीय मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। जहां कभी कांग्रेस का वोट बैंक विचारधारा और विकास के नाम पर एकजुट होता था, अब वह विभिन्न दलों में बिखर चुका है।
युवाओं में कांग्रेस की पकड़ कमजोर होती जा रही है। नई पीढ़ी भाजपा या क्षेत्रीय दलों की ओर आकर्षित है, जिससे कांग्रेस के लिए जनाधार फिर से बनाना चुनौतीपूर्ण हो गया है।
निष्कर्ष: कांग्रेस के लिए “करो या मरो” का चुनाव
आगामी बिहार विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए निर्णायक साबित हो सकते हैं। यदि विजेंद्र चौधरी अपनी सीट बचाने में सफल रहते हैं, तो यह कांग्रेस के पुनर्जीवन की शुरुआत मानी जाएगी। लेकिन यदि वे हारते हैं, तो उत्तर बिहार से कांग्रेस का नाम लगभग मिट जाना तय है।
मुजफ्फरपुर की गलियों और चाय की दुकानों में आज यही चर्चा है — “क्या कांग्रेस फिर लौटेगी?”