बिहार में सियासी समीकरण उलझे, जनता की खामोशी से बढ़ी बेचैनी
बिहार में चुनावी सरगर्मी तेज हो चुकी है। पोस्टर, नारे और वादों के बीच सबसे बड़ा सवाल मतदाताओं की खामोशी का है। इस बार जनता कुछ बोल नहीं रही, जिससे प्रत्याशियों की चिंता बढ़ गई है।
खामोश मतदाता बना चुनाव का केंद्रबिंदु
समस्तीपुर में चुनावी माहौल पूरे उफान पर है, पर मतदाता मौन हैं। न कोई खुलकर समर्थन दे रहा है, न विरोध। हर कोई अपने मन की बात छुपा रहा है। यही खामोशी प्रत्याशियों को बेचैन कर रही है। सभाओं में भीड़ है, तालियां हैं, पर मतदाताओं के चेहरे बिना भाव के हैं।
प्रचार में भीड़, लेकिन जनता का रुख अस्पष्ट
उम्मीदवार सड़कों पर रोड शो कर रहे हैं, भाषण दे रहे हैं। जनता पहुंच भी रही है, पर किसी के चेहरे पर यह साफ नहीं दिख रहा कि उनका वोट किसे मिलने वाला है। हर पार्टी दावा कर रही है कि जनता उनके साथ है, लेकिन असल सच्चाई कोई नहीं जानता।
गांवों में सक्रिय हुए वॉलेंटियर और ठेकेदार
गांव-गांव में राजनीतिक वॉलेंटियर सक्रिय हो गए हैं। हर कोई मतदाता को अपने पक्ष में करने की कोशिश में है। वोट के ठेकेदार भी मैदान में उतर आए हैं। वे मतदाताओं से मिल रहे हैं, वादे कर रहे हैं, लेकिन भीतर से असमंजस में हैं। उन्हें डर है कि कहीं आखिरी समय में जनता रुख न बदल दे।
प्रत्याशियों की रणनीति में भावनाओं से ज्यादा गणित
इस बार प्रत्याशी भावनाओं से नहीं, गणित से चुनाव लड़ रहे हैं। किस जाति का कितना वोट है, कौन-सा इलाका निर्णायक रहेगा—यही चर्चा हर राजनीतिक दफ्तर में चल रही है। विकास, रोजगार और कानून-व्यवस्था जैसे मुद्दे भाषणों में हैं, लेकिन असली फोकस वोट बैंक पर है।
जनता का जवाब मौन में छिपा
विश्लेषकों का कहना है कि जनता अब पहले जैसी नहीं रही। वह सब सुनती है, देखती है, पर बोलती नहीं। उसे पता है कि चुनाव से पहले हर प्रत्याशी जनता का सेवक बन जाता है, पर बाद में वही सेवक साहब कहलाता है। इसलिए जनता ने इस बार खामोशी को ही जवाब बनाया है।
खेमेबंदी और कशमकश
ग्रामीण इलाकों में अब खेमेबंदी शुरू हो चुकी है। निर्दलीय और दलीय प्रत्याशी अपनी-अपनी बिसात बिछा रहे हैं। कार्यकर्ता अपने-अपने क्षेत्रों में सक्रिय हैं। पर जनता अब आखिरी समय में ही फैसला करने की सोच में है। हर कोई कह रहा है, “सोच लेंगे आखिरी दिन पर।” यही आखिरी दिन प्रत्याशियों के लिए सबसे कठिन साबित होगा।
चुनावी मौसम में बढ़ता तनाव
जैसे-जैसे मतदान की तारीख करीब आ रही है, प्रत्याशियों की बेचैनी बढ़ रही है। हर कोई अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचने की कोशिश में है। रैलियां बढ़ रही हैं, भाषण तेज हो रहे हैं, लेकिन जनता की खामोशी टूटने का नाम नहीं ले रही। यही मौन अब बिहार के चुनावी नतीजे तय करेगा।