महाराष्ट्र में नया सरकारी आदेश और सम्मान का सवाल
महाराष्ट्र सरकार द्वारा जारी नए आदेश ने प्रशासनिक तंत्र और राजनीतिक व्यवस्था के बीच संबंधों पर जोरदार बहस छेड़ दी है। सरकार के निर्देशानुसार अब राज्य के सभी अधिकारी तब तक बैठे नहीं रह सकते जब तक किसी विधायक या सांसद के दफ्तर में आने पर वे उन्हें सम्मानपूर्वक खड़े होकर अभिवादन न कर लें। यह आदेश केवल शिष्टाचार तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे प्रशासनिक जिम्मेदारी और राजनीतिक प्रतिनिधियों की लोकतांत्रिक पहचान से जोड़कर देखा जा रहा है। आदेश का सार यही है कि प्रशासन को उन प्रतिनिधियों का सम्मान करना चाहिए जिन्हें जनता ने चुनकर सत्ता के गलियारे तक पहुंचाया है।
विधायकों और सांसदों के साथ कैसा व्यवहार करना होगा
इस आदेश में स्पष्ट शब्दों में बताया गया है कि किसी भी सरकारी दफ्तर में अगर कोई विधायक या सांसद प्रवेश करता है, तो वहां मौजूद सरकारी अधिकारी को तुरंत अपनी सीट से उठना होगा। उनसे नम्रतापूर्वक अभिवादन करते हुए बातचीत करनी होगी और उनके सुझाव, शिकायतें या आग्रहों को ध्यानपूर्वक सुनना होगा। सरकार का कहना है कि यह महज परंपरा या मान-सम्मान की रस्म नहीं है, बल्कि लोकतंत्र में चुने गए प्रतिनिधियों के अधिकारों को मान्यता देने का संकेत है।
आदेश में यह भी शामिल किया गया है कि अधिकारी फोन पर भी निर्वाचित प्रतिनिधियों से बातचीत करते समय शालीन भाषा का प्रयोग करें और किसी भी स्थिति में उपेक्षापूर्ण शब्दों और व्यवहार से बचें। फोन कॉल पर सवालों के जवाब देते समय विनम्रता, जिम्मेदारी और समयबद्ध संचार को प्राथमिकता देने के निर्देश भी दिए गए हैं।
सरकार ने दिया जवाबदेही का तर्क
यह सवाल स्वाभाविक है कि आखिर महाराष्ट्र सरकार को ये आदेश जारी करने की जरूरत क्यों महसूस हुई। इसके संदर्भ में सरकार ने स्पष्ट किया है कि प्रशासनिक जवाबदेही तभी मजबूत होती है जब अधिकारी जनता के प्रतिनिधियों का सम्मान करते हुए उनके मुद्दों, समस्याओं और शिकायतों को गंभीरता से लेते हैं। सरकार के अनुसार जब अधिकारी चुने गए प्रतिनिधियों को सम्मान देते हैं, तो इसका प्रत्यक्ष असर जनता के हित से जुड़े फैसलों पर पड़ता है।
राज्य के मुख्य सचिव राजेश कुमार की ओर से जारी आदेश में कहा गया है कि जनप्रतिनिधियों को सम्मान दिए जाने से प्रशासन पारदर्शी, जिम्मेदार और प्रभावी बनता है। यही कारण है कि इस आदेश को सुशासन और पारदर्शिता से जोड़कर देखा जा रहा है। यह भी उल्लेखनीय है कि सरकार ने उन अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने की चेतावनी दी है जो इन निर्देशों की अनदेखी करेंगे।
हाल की शिकायतों ने बढ़ाई गर्माहट
सूत्रों के अनुसार, कुछ महीनों से राज्य में कई विधायक और सांसद लगातार यह शिकायत कर रहे थे कि अधिकारी उनके पत्रों का जवाब नहीं दे रहे, मुलाकात के लिए समय नहीं दे रहे या कई मामलों में उनके सुझावों को हल्के में ले रहे हैं। यही शिकायतें बाद में राजनीतिक मुद्दा बनने लगीं और विपक्ष से लेकर सत्ता पक्ष के कई नेता खुलकर बयान देने लगे कि अधिकारी निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को नजरअंदाज कर रहे हैं।
राजनीतिक गलियारों में यह तर्क दिया जाने लगा कि जनता की तकलीफ, मांग या शिकायत को पहले जनप्रतिनिधि के पास भेजा जाता है। अगर अधिकारी उनसे संवाद करने के लिए तैयार ही न हों, या उनके कार्यों को महत्त्व न दें, तो लोकतंत्र का स्वर बदल जाता है। यही तर्क सरकार के आदेश में भी दर्ज किया गया, जिसमें कहा गया कि चुने गए प्रतिनिधियों को सम्मान देना केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि प्रशासनिक जिम्मेदारी है।
विधायक और सांसदों के पत्रों के लिए विशेष रजिस्टर
नए आदेश में एक और महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश जारी किया गया है, जिसके तहत हर सरकारी दफ्तर को एक विशेष रजिस्टर तैयार करना होगा जिसमें विधायकों और सांसदों से प्राप्त पत्रों का रिकॉर्ड रखा जाएगा। इस रजिस्टर में आने वाले सभी पत्रों का विवरण होगा और प्रत्येक पत्र का जवाब अधिकतम दो महीने के भीतर देना अनिवार्य कर दिया गया है।
अगर किसी मामले में समय सीमा के भीतर जवाब देना संभव न हो, तो उसका निर्णय विभागाध्यक्ष को भेज दिया जाएगा और संबंधित विधायक या सांसद को औपचारिक रूप से लिखित जानकारी दी जाएगी। इसका उद्देश्य स्पष्ट रूप से यह संदेश देना है कि जनप्रतिनिधि द्वारा उठाया गया कोई भी मुद्दा अब अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह रजिस्टर उस जवाबदेही को रिकॉर्ड कर सकेगा जिसकी अनुपस्थिति की शिकायतें लंबे समय से उठ रही थीं।
समर्थन और विरोध की मिलीजुली प्रतिक्रिया
सरकारी आदेश के बाद राजनीतिक और प्रशासनिक वर्गों में प्रतिक्रिया बेहद मिश्रित नजर आ रही है। कुछ नेताओं का कहना है कि इससे अधिकारियों में जिम्मेदारी और जवाबदेही की भावना बढ़ेगी और जन कठिनाइयों के समाधान में तेजी आएगी। दूसरी ओर, कुछ प्रशासनिक अधिकारियों ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि यह आदेश कहीं न कहीं राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ा सकता है और अधिकारी काम के दबाव से अधिक राजनीतिक दबाव में आ सकते हैं।
कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि लोकतंत्र में सम्मान दो तरफा होता है। अगर जनप्रतिनिधियों को सम्मान मिलना चाहिए, तो उन्हें भी अधिकारियों के साथ शालीन भाषा और सहयोगपूर्ण व्यवहार अपनाना होगा। यह असर तभी दिखेगा जब दोनों पक्ष इस नियम को केवल ‘सम्मान’ के तौर पर नहीं बल्कि ‘जिम्मेदारी’ के रूप में समझें।