भारत की न्यायपालिका पर जनमत और भ्रम: सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश ने खोले कई राज
अब तक न्यायपालिका को लेकर जनमानस में अनेक धारणाएँ, आरोप और प्रश्न उठते रहे हैं। विशेषकर सरकारों के बदलते दौर में यह चर्चाएँ और तेज हो जाती हैं। ऐसे समय में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पद से हाल ही सेवानिवृत्त हुए जस्टिस बी.आर. गवई के बयान ने न्यायिक स्वतंत्रता, न्यायिक आचरण और नियुक्तियों के जटिल ढांचे पर अहम रोशनी डाली है। उनका स्पष्ट कहना कि न्यायालय में फैसले किसी पक्ष विशेष को देखकर नहीं, बल्कि कानून और साक्ष्यों के आधार पर होते हैं, वर्तमान समय में एक महत्वपूर्ण संदेश है।
न्यायिक निर्णय सरकार के विरुद्ध देना ही स्वतंत्रता नहीं
जस्टिस गवई ने अपने संबोधन में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे को बेबाकी से सामने रखा। उन्होंने कहा कि समाज में एक गलत धारणा फैली हुई है कि यदि कोई जज हर मामले में सरकार के विरोध में निर्णय दे, तभी वह स्वतंत्र और निष्पक्ष माना जाएगा। उन्होंने इसे गलत सोच करार देते हुए कहा कि न्यायिक निर्णय हमेशा केस की मेरिट, तथ्यों और कानून की कसौटी पर होते हैं, न कि किसी राजनीतिक रुझान या जनभावना के आधार पर।
उन्होंने यह भी कहा कि उनके पूरे कार्यकाल में कभी भी सरकार की ओर से किसी प्रकार के दबाव का सामना नहीं करना पड़ा। यह टिप्पणी ऐसे समय में आई है, जब अलग-अलग मंचों पर न्यायपालिका की स्वतंत्रता को लेकर सवाल उठाए जाते हैं।
कॉलेजियम व्यवस्था और मतभेदों पर खुलकर बात
सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति प्रक्रिया, विशेषकर कॉलेजियम प्रणाली को लेकर लंबे समय से विवाद चलता रहा है। इस मुद्दे पर जस्टिस गवई ने एक महत्वपूर्ण पक्ष रखा। उन्होंने जस्टिस बी.वी. नागरत्ना द्वारा जस्टिस विपुल पंचोली के प्रमोशन पर जताई गई असहमति को उदाहरण के रूप में लिया और कहा कि कॉलेजियम में मतभेद होना कोई असामान्य या गलत बात नहीं है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि मतभेद होने का अर्थ यह नहीं कि असहमति सही ही हो। यदि उसमें वास्तविक मेरिट होती, तो कॉलेजियम के अन्य चार सदस्य भी उसके पक्ष में आते।
सार्वजनिक प्रश्न यह था कि नागरत्ना की असहमति को सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया। इस पर जस्टिस गवई ने बताया कि इस निर्णय पर सर्वसम्मति से सहमति बनी थी कि असहमति को प्रकाशित नहीं किया जाएगा क्योंकि इससे जनता में भ्रम, पक्षपात और अनावश्यक पूर्वाग्रह उत्पन्न होते हैं।
असहमति को सार्वजनिक करने के नुकसान
जस्टिस गवई ने अपनी बात में उस खतरे की ओर भी इशारा किया, जो जजों की नियुक्तियों में असहमति को सार्वजनिक करने से पैदा हो सकता है। उन्होंने कहा कि यदि ऐसी असहमति सार्वजनिक मंच पर आती है, तो उस व्यक्ति विशेष के खिलाफ अनावश्यक राय बनने लगती है। यह न्यायपालिका के भीतर के आंतरिक निर्णयों और प्रक्रियाओं पर बाहरी दवाब पैदा करता है। इस तरह के पूर्वाग्रह न्यायिक कार्यप्रणाली की शुचिता को प्रभावित कर सकते हैं।
महिला न्यायाधीशों की कमी पर खेद
अपने वक्तव्य के दौरान जस्टिस गवई ने स्पष्ट रूप से एक महत्वपूर्ण कमी पर अफसोस भी जताया। उन्होंने कहा कि अपने कार्यकाल के दौरान वह सुप्रीम कोर्ट में किसी महिला जज की नियुक्ति की सिफारिश नहीं करा पाए। यह बयान देश की न्यायिक संरचना में महिला प्रतिनिधित्व की गंभीर कमी की ओर संकेत करता है। देश की सर्वोच्च अदालत में महिला जजों की संख्या आज तक बहुत सीमित रही है, और इस विषय पर दिया गया यह वक्तव्य भविष्य में सुधार की दिशा दिखाता है।
सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पद स्वीकार करने से इंकार
भारतीय परंपरा में कई बार शीर्ष पदों से सेवानिवृत्त होने के बाद न्यायाधीशों को राज्यपाल, आयोग प्रमुख या अन्य संवैधानिक भूमिकाएँ स्वीकार करने के प्रस्ताव मिलते हैं। जस्टिस गवई ने स्पष्ट रूप से कहा कि वह सेवानिवृत्ति के बाद किसी सरकारी पद को स्वीकार नहीं करेंगे। उनका कहना था कि वह अपने गृह जिले में आदिवासी समुदाय के कल्याण में योगदान देना चाहते हैं।
यह निर्णय न्यायिक पदों की गरिमा को और मजबूत करता है क्योंकि समाज में अक्सर यह तर्क दिया जाता रहा है कि सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले पद न्यायिक निष्पक्षता को प्रभावित कर सकते हैं।
न्यायपालिका में विश्वास और नागरिक जिम्मेदारी
जस्टिस गवई के वक्तव्य का एक बड़ा संदेश यह भी है कि न्यायपालिका में विश्वास बनाए रखने की जिम्मेदारी केवल न्यायधीशों की ही नहीं, बल्कि नागरिकों और मीडिया की भी है। गलत धारणा बनाकर या अधूरी सूचनाओं के आधार पर न्यायपालिका पर सवाल उठाना संस्थानों की विश्वसनीयता को कमजोर करता है। उन्होंने यह भी संकेत दिया कि स्वतंत्रता की वास्तविक कसौटी फैसलों की गुणवत्ता होती है, न कि जनमानस की राजनीतिक अपेक्षाएँ।
जस्टिस बी.आर. गवई के विचार स्पष्ट करते हैं कि न्याय की परिभाषा लोकप्रियता से अलग होती है। न्यायालय कानून का पालन करता है, राजनीतिक नैरेटिव का नहीं। एक निष्पक्ष न्यायिक व्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि निर्णय तथ्यों और विधि की कसौटी पर टिके हों, चाहे वे किसी भी पक्ष के पक्ष या विपक्ष में क्यों न हों।