महाराष्ट्र विधान परिषद में एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम सामने आया है जब उपसभापति डॉ. नीलम गोऱ्हे ने कई वर्षों से उपेक्षित पड़े तदर्थ समिति के प्रतिवेदन को सदन के समक्ष प्रस्तुत किया। यह प्रतिवेदन लंबे समय से लंबित था और इसके प्रस्तुतीकरण से विधानमंडल में महत्वपूर्ण मुद्दों पर फिर से गंभीर विचार-विमर्श का द्वार खुल गया है। इस कदम को विधायी प्रक्रिया में पारदर्शिता और जवाबदेही की दिशा में एक सकारात्मक पहल माना जा रहा है।
तदर्थ समितियों की भूमिका और महत्व
महाराष्ट्र विधानमंडल में तदर्थ समितियाँ कोई साधारण संरचनाएं नहीं हैं। ये विशेष उद्देश्यों के लिए गठित की जाने वाली अस्थायी समितियां होती हैं जो किसी विशिष्ट विषय या समस्या के गहन अध्ययन के लिए बनाई जाती हैं। इनका गठन तब किया जाता है जब कोई मुद्दा इतना जटिल या संवेदनशील होता है कि उस पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है।
इन समितियों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इनके पास एक निश्चित उद्देश्य और समयसीमा होती है। इसका मतलब है कि इन्हें किसी अनिश्चित काल तक नहीं चलाया जाता, बल्कि एक तय समय में अपना काम पूरा करना होता है। यह व्यवस्था सुनिश्चित करती है कि मुद्दों पर समय पर ध्यान दिया जाए और उनका समाधान निकाला जाए।
तदर्थ समितियों के प्रमुख कार्य
तदर्थ समितियां विधानमंडल की कार्यप्रणाली में कई महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाती हैं। सबसे पहले, ये कानूनों के क्रियान्वयन की समीक्षा करती हैं। जब कोई कानून बन जाता है, तो यह देखना जरूरी होता है कि वह जमीन पर कैसे लागू हो रहा है। ये समितियां यह जांचती हैं कि क्या कानून अपने मूल उद्देश्य को पूरा कर रहा है या नहीं।
दूसरा, ये विभिन्न विषयों की गहन जांच-पड़ताल करती हैं। कई बार ऐसे मुद्दे सामने आते हैं जिन पर तत्काल निर्णय लेना मुश्किल होता है। ऐसे में तदर्थ समितियां विस्तृत अध्ययन करके विस्तृत रिपोर्ट तैयार करती हैं जो निर्णय लेने में सहायक होती हैं।
तीसरा, ये समितियां प्रशासनिक कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए व्यावहारिक सुझाव देती हैं। सरकारी तंत्र में कई बार ऐसी खामियां होती हैं जो केवल गहन अध्ययन से ही सामने आती हैं। इन समितियों की सिफारिशें प्रशासन को बेहतर बनाने में मददगार साबित होती हैं।
प्रतिवेदन की उपेक्षा और उसके कारण
यह चिंता का विषय है कि यह प्रतिवेदन कई वर्षों तक उपेक्षित क्यों रहा। विधानमंडल में ऐसा होना असामान्य नहीं है, लेकिन यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए स्वस्थ संकेत नहीं माना जा सकता। जब किसी समिति की रिपोर्ट को लंबे समय तक दबाकर रखा जाता है, तो इससे न केवल उस मुद्दे का समाधान टलता है, बल्कि जनता का विश्वास भी कमजोर होता है।
कई बार राजनीतिक कारणों से, प्रशासनिक लापरवाही से, या फिर प्राथमिकताओं में बदलाव के चलते ऐसे प्रतिवेदन पीछे छूट जाते हैं। लेकिन उपसभापति डॉ. नीलम गोऱ्हे द्वारा इस प्रतिवेदन को सदन में रखा जाना यह दर्शाता है कि विधायी जिम्मेदारियों को पूरा करने की इच्छाशक्ति अभी भी मौजूद है।
नए विमर्श की संभावना
इस प्रतिवेदन के प्रस्तुत होने से अब संबंधित विषयों पर नई बहस शुरू होने की उम्मीद है। विधान परिषद में सदस्य इस पर विस्तृत चर्चा कर सकेंगे और समिति की सिफारिशों पर विचार कर सकेंगे। यह प्रक्रिया लोकतंत्र की मजबूती के लिए आवश्यक है क्योंकि इससे पता चलता है कि विधानमंडल अपने दायित्वों के प्रति गंभीर है।
इस प्रतिवेदन में जो भी सुझाव और निष्कर्ष होंगे, उन पर आवश्यक प्रशासनिक और विधायी कार्रवाई की संभावना बढ़ गई है। यदि समिति ने किसी कानून में संशोधन की सिफारिश की है, तो उस पर विधानमंडल में बहस हो सकती है। यदि प्रशासनिक सुधारों की बात की गई है, तो सरकार को उन पर अमल करना होगा।
जमीनी समस्याओं का समाधान
तदर्थ समितियों के माध्यम से विधानमंडल को जमीनी स्तर की समस्याओं की स्पष्ट और प्रामाणिक जानकारी मिलती है। ये समितियां केवल कागजी कार्रवाई नहीं करतीं, बल्कि जनता से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा कराती हैं और उन पर ठोस सुझाव देती हैं।
जब विधायक और पार्षद केवल सदन की चारदीवारी में बैठकर निर्णय लेते हैं, तो कई बार वास्तविकता से दूर रह जाते हैं। लेकिन तदर्थ समितियां फील्ड विजिट करती हैं, संबंधित पक्षों से मिलती हैं, और फिर एक संतुलित रिपोर्ट तैयार करती हैं। यह प्रक्रिया निर्णय को अधिक प्रभावी और जनोन्मुखी बनाती है।
विधानमंडल की मजबूती की दिशा में कदम
इन समितियों का कार्य विधानमंडल की कार्यप्रणाली को सशक्त करता है। एक मजबूत विधानमंडल ही स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है। जब विधायी संस्थाएं अपने दायित्वों को गंभीरता से निभाती हैं, तो कार्यपालिका पर प्रभावी निगरानी रखी जा सकती है और जनता के हित से जुड़े मुद्दों को समय पर हल किया जा सकता है।
डॉ. नीलम गोऱ्हे द्वारा इस प्रतिवेदन को सदन में रखना एक सराहनीय कदम है जो यह संदेश देता है कि कोई भी रिपोर्ट या सुझाव कितना भी पुराना क्यों न हो, यदि वह प्रासंगिक है तो उस पर कार्रवाई होनी चाहिए। यह कदम अन्य लंबित प्रतिवेदनों को भी सामने लाने के लिए प्रेरणा बन सकता है।