Pakistan Airline Sold: पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था जिस गहरे संकट में फंसी हुई है, उसकी एक और कड़वी तस्वीर अब दुनिया के सामने आ गई है। कर्ज, महंगाई और विदेशी मदद पर निर्भरता से जूझ रहा पाकिस्तान अब अपनी राष्ट्रीय संपत्तियां बेचने को मजबूर हो गया है। हालात यहां तक बिगड़ चुके हैं कि शहबाज शरीफ सरकार को देश की पहचान मानी जाने वाली सरकारी एयरलाइन पाकिस्तान इंटरनेशनल एयरलाइंस यानी पीआईए को भी निजी हाथों में सौंपना पड़ा है। 135 अरब रुपये में हुआ यह सौदा सिर्फ एक कारोबारी लेनदेन नहीं, बल्कि पाकिस्तान की आर्थिक बदहाली की खुली स्वीकारोक्ति भी है।
मंगलवार को पाकिस्तान सरकार ने नेशनल फ्लैग-कैरियर पीआईए के निजीकरण की प्रक्रिया को औपचारिक रूप से पूरा किया। एक स्थानीय निवेश कंपनी के नेतृत्व वाले कंसोर्टियम को पीआईए सौंप दी गई। सरकार इसे आर्थिक सुधार की दिशा में उठाया गया कदम बता रही है, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि यह फैसला मजबूरी में लिया गया है, न कि किसी मजबूत रणनीति के तहत।
कर्ज के बोझ तले दबती सरकार
पिछले कुछ वर्षों से पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ और मित्र देशों से आर्थिक मदद लेकर किसी तरह अपनी अर्थव्यवस्था को संभालने की कोशिश करता रहा है। अरबों डॉलर के बेलआउट पैकेज के बावजूद हालात में कोई ठोस सुधार नहीं दिखा।
पाकिस्तान पर विदेशी कर्ज का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। ब्याज चुकाने के लिए भी नया कर्ज लेना पड़ रहा है। ऐसे में सरकार के पास राजस्व जुटाने के सीमित विकल्प ही बचे थे। पीआईए जैसी सरकारी संपत्ति की बिक्री उसी मजबूरी का नतीजा मानी जा रही है।
पीआईए का गौरवशाली अतीत और कड़वा वर्तमान
कभी एशिया की बेहतरीन एयरलाइनों में गिनी जाने वाली पीआईए आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी। दशकों तक यह एयरलाइन पाकिस्तान की शान और अंतरराष्ट्रीय पहचान का प्रतीक रही।
विशेषज्ञों का मानना है कि पीआईए की हालत खराब होने के पीछे लगातार चलता कुप्रबंधन, राजनीतिक हस्तक्षेप और वित्तीय अनुशासन की कमी बड़ी वजह रही। घाटे पर घाटा बढ़ता गया और सरकार समय रहते सुधार नहीं कर सकी।
सरकार का दावा है कि निजीकरण से पीआईए की कार्यक्षमता सुधरेगी और उस पर से सरकारी खजाने का बोझ कम होगा। लेकिन यह सवाल भी उतना ही अहम है कि क्या निजी हाथों में जाने के बाद पीआईए अपनी पुरानी साख वापस पा सकेगी।
नौकरियों पर संकट की आशंका
पीआईए में काम कर रहे हजारों कर्मचारियों के भविष्य को लेकर अनिश्चितता बढ़ गई है। निजी कंपनियां आमतौर पर लागत घटाने पर जोर देती हैं, ऐसे में छंटनी की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।