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हिट फिल्म ‘धुरंधर’ के एक लाइन से शुरू हुआ बवाल, हाईकोर्ट पहुंचा नया विवाद

Dhurandhar Box Office
Dhurandhar Box Office Collection
बॉक्स ऑफिस पर सफल फिल्म धुरंधर एक विवादित डायलॉग के कारण कानूनी संकट में फंस गई है। बलोच समुदाय के सदस्यों ने गुजरात हाई कोर्ट में याचिका दायर कर संवाद हटाने और सीबीएफसी से पुनः समीक्षा की मांग की है। यह मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक सम्मान की सीमा पर गंभीर बहस छेड़ता है।
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Dhurandhar Film Controversy: बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे गाड़ रही बॉलीवुड फिल्म धुरंधर अब एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ी हुई है, जहां सिनेमाई मनोरंजन और सामाजिक जिम्मेदारी आमने-सामने खड़ी नजर आती हैं। जिस फिल्म को दर्शक बड़े पैमाने पर पसंद कर रहे हैं, वही अब एक विवादित डायलॉग के कारण कानूनी और नैतिक बहस के केंद्र में आ गई है। गुजरात हाई कोर्ट में दायर याचिका ने यह सवाल फिर से खड़ा कर दिया है कि रचनात्मक स्वतंत्रता की सीमा आखिर कहां खत्म होती है और किसी समुदाय की गरिमा कहां से शुरू होती है।

फिल्म के खिलाफ यह याचिका बलोच समुदाय के कुछ सदस्यों द्वारा दायर की गई है, जिनका आरोप है कि फिल्म में इस्तेमाल किया गया एक संवाद सीधे तौर पर उनके समुदाय के खिलाफ नफरत और पूर्वाग्रह को बढ़ावा देता है। यह विवाद सिर्फ एक डायलॉग तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उस व्यापक बहस का हिस्सा बन गया है, जिसमें सिनेमा की भूमिका समाज को जोड़ने वाली ताकत के रूप में देखी जाती है या विभाजन को गहरा करने वाले माध्यम के रूप में।

विवाद की जड़ बना एक संवाद

धुरंधर फिल्म में अभिनेता संजय दत्त द्वारा निभाए गए पात्र का एक संवाद— “मगरमच्छ पे भरोसा कर सकते हैं, पर बलोच पे नहीं”— अब पूरे विवाद का केंद्र बन गया है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह संवाद किसी काल्पनिक चरित्र की सीमा से बाहर निकलकर पूरे बलोच समुदाय को संदेह और अविश्वास की नजर से देखने की मानसिकता को मजबूत करता है।

याचिकाकर्ता कौन और क्या है उनकी आपत्ति

टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, गांधीनगर निवासी यासीन बलोच और बनासकांठा के अयूबखान बलोच ने यह याचिका दायर की है। उनका कहना है कि यह संवाद हेट स्पीच की श्रेणी में आता है और संविधान द्वारा प्रदत्त समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। उनके अनुसार, फिल्म जैसे लोकप्रिय माध्यम में इस तरह के संवाद का इस्तेमाल समाज में गलत संदेश देता है।

सम्मान बनाम मनोरंजन की बहस

याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि मनोरंजन के नाम पर किसी समुदाय की छवि को ठेस पहुंचाना स्वीकार्य नहीं हो सकता। उनका कहना है कि सिनेमा का असर व्यापक होता है और एक संवाद लाखों दर्शकों के मन में किसी समुदाय के प्रति स्थायी धारणा बना सकता है।

इस याचिका में सिर्फ फिल्म निर्माता या निर्देशक को ही नहीं, बल्कि सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन की भूमिका को भी कटघरे में खड़ा किया गया है। याचिकाकर्ताओं की मांग है कि जब तक विवादित संवाद को स्थायी रूप से म्यूट या डिलीट नहीं किया जाता, तब तक फिल्म के सर्टिफिकेट में बदलाव किया जाए।

पुनः समीक्षा की मांग

याचिकाकर्ताओं ने अदालत से आग्रह किया है कि वह सीबीएफसी को फिल्म की नए सिरे से समीक्षा करने का निर्देश दे। उनका कहना है कि संवैधानिक और वैधानिक दिशानिर्देशों का सख्ती से पालन होना चाहिए, ताकि भविष्य में किसी भी समुदाय को इस तरह की आपत्ति का सामना न करना पड़े।

याचिका में यह भी मांग की गई है कि विवादित संवाद के साथ फिल्म के प्रदर्शन, प्रसारण और स्ट्रीमिंग पर रोक लगाई जाए। उनका तर्क है कि जब तक संवाद मौजूद है, तब तक नुकसान जारी रहेगा।

पहले भी अदालत कर चुकी है दखल

यह पहली बार नहीं है जब किसी फिल्म के संवाद या दृश्य को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटाया गया हो। याचिका में जॉली एलएलबी, पद्मावत और आदिपुरुष जैसी फिल्मों का हवाला दिया गया है, जहां कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद आपत्तिजनक सामग्री हटाई गई थी।

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Dipali Kumari

दीपाली कुमारी पिछले तीन वर्षों से सक्रिय पत्रकारिता में कार्यरत हैं। उन्होंने रांची के गोस्सनर कॉलेज से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की है। सामाजिक सरोकारों, जन-जागरूकता और जमीनी मुद्दों पर लिखने में उनकी विशेष रुचि है। आम लोगों की आवाज़ को मुख्यधारा तक पहुँचाना और समाज से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्नों को धारदार लेखन के माध्यम से सामने लाना उनका प्रमुख लक्ष्य है।