Sonam Wangchuk के हिरासत-मुकदमें में हुआ नया विकास
संशोधित याचिका का निर्णय
केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख के प्रमुख पर्यावरण-संचारक एवं विद्या-उद्यमी सोनम वांगचुक को 26 सितंबर 2025 को National Security Act, 1980 (NSA) के प्रावधानों के अंतर्गत हिरासत में लिया गया था।
उनकी पत्नी, गितांजलि जे. आंगमो, ने उनकी आज़ादी हेतु शीर्ष न्यायालय यानी Supreme Court of India में याचिका दायर की थी। इस याचिका में यह तर्क दिया गया था कि हिरासत आदेश के पीछे दिए गए कारणों की जानकारी वांगचुक को समय पर नहीं दी गई थी, जिससे उनके संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ।
बुधवार को सुनवाई के दौरान, न्यायमूर्ति अरविंद कुमार और न्यायमूर्ति एन.वी. अंजरिया की बेंच ने गितांजलि आंगमो की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता Kapil Sibal द्वारा प्रस्तुत संशोधन याचिका दाखिल करने के आग्रह को स्वीकार किया। इस प्रकार उनकी याचिका को संशोधित करने की अनुमति मिल गई और अगली सुनवाई की तिथि 29 अक्टूबर 2025 निर्धारित हुई।
लद्दाख प्रशासन ने अपनी अभिलेख-याचिका (affidavit) में कहा है कि वांगचुक की हिरासत विधिपूर्वक की गई थी। लेह के उपायुक्त एवं जिला दंडाधिकारी रोमिल सिंह डोंक ने कहा कि उन्होंने धारा 3(2) के अंतर्गत अध्ययन किया था और पाया था कि वांगचुक ने राज्य-सुरक्षा व सार्वजनिक व्यवस्था के विरुद्ध गतिविधियों में भाग लिया है।
जोधपुर केंद्रीय जेल की ओर से भी एक अभिलेख प्रस्तुत किया गया है जिसमें कहा गया कि वांगचुक को सामान्य वार्ड में रखा गया है, चिकित्सा परीक्षण किया गया और उन्हें नोट्स तैयार करने हेतु लैपटॉप भी दिया गया था।
वहीं, गितांजलि आंगमो ने शीर्ष न्यायालय में यह दावा किया है कि उन्हें तथा उनके पति को सूचना-विना व स्थानांतरण के माध्यम से पृथक रखा गया है, जिससे उनके मौलिक अधिकार – जैसे कि धारा 19 (स्वतंत्र अभिव्यक्ति), धारा 21 (जीवन-स्वतंत्रता) – प्रभावित हुए हैं।
याचिका में संशोधन-बिंदु एवं आगे का रास्ता
गितांजलि आंगमो की याचिका में अब यह कहा गया है कि वांगचुक को हिरासत आदेश के कारणों की प्रतिलिपि समय-पर उपलब्ध नहीं कराई गई, तथा उन्हें न्याय-प्रतिनिधि से सही-सही परामर्श का अवसर नहीं मिला। इस संशोधन याचिका में उन कारणों को चुनौती देने का प्रयास है जिन्हें प्रशासन ने अपनी याचिका में प्रस्तुत किया था।
न्यायमूर्ति की बेंच ने इस दौरान ये निर्देश भी दिए कि वांगचुक और उनकी पत्नी के बीच यदि तैयार किए गए नोट्स का आदान-प्रदान हो रहा है, तो उस पर ‘प्रक्रियात्मक देरी’ को नए विवाद का आधार नहीं बनाया जाना चाहिए—प्रधान वकील Tushar Mehta द्वारा यह शर्त लगायी गई थी।
सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव और आगे की चुनौतियाँ
इस प्रकरण ने लद्दाख में हाल ही में हुई राज्य और छठी अनुसूची से संबंधित मांगों के प्रदर्शनों तथा उसके उपरांत हुए हिंसक घटनाक्रम से गहरा संबंध स्थापित किया है। उन प्रदर्शनों के दौरान चार नागरिकों की मृत्यु और लगभग सौ लोगों के घायल होने की सूचना मिली थी।
ऐसे परिप्रेक्ष्य में, वांगचुक की गिरफ्तारी केवल एक व्यक्तिगत प्रकरण नहीं रह गई है, बल्कि यह अब संवैधानिक, क्षेत्रीय और राजनीतिक विभाजन का प्रतीक बन चुकी है। यह प्रश्न उठता है कि क्या अभियोजन पक्ष ने समय पर आवश्यक सूचना प्रदान की, क्या हिरासत की प्रक्रिया का विधिसम्मत पालन हुआ, और क्या आलोचकों द्वारा उठाए गए मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से संबंधित दावे जांच की सीमा से बाहर तो नहीं रह जाएंगे।
अब 29 अक्टूबर को होने वाली अगली सुनवाई में यह देखा जाएगा कि सर्वोच्च न्यायालय हिरासत के कारणों, तैयार किए गए नोट्स के आदान-प्रदान तथा वांगचुक और गितांजलि आंगमो को प्रदान की गई सूचनाओं का किस प्रकार से परीक्षण करता है। इस सुनवाई का परिणाम लद्दाख क्षेत्र में शासन-विरोधी भावनाओं और नागरिक स्वतंत्रता से जुड़ी चिंताओं को एक नया आयाम प्रदान कर सकता है।
इस प्रकार, वांगचुक को दी गयी हिरासत और उस पर उठाये गए संवैधानिक प्रश्न अब न्याय-मंच पर आ गये हैं। गितांजलि आंगमो द्वारा दायर संशोधित याचिका ने कहानी को सिर्फ एक गिरफ्तार सामाजिक कार्यकर्ता की नहीं, बल्कि एक संवैधानिक परीक्षण की दिशा में मोड़ दिया है। 29 अक्टूबर की सुनवाई परिणामस्वरूप यह स्पष्ट हो सकेगा कि भारत में आज भी “रक्षा व सार्वजनिक व्यवस्था” नामक धारा के अंतर्गत किस हद तक व्यक्ति-स्वतंत्रता को संतुलित किया जा सकता है।