बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम 14 नवंबर को आने वाले हैं और अधिकांश एग्जिट पोल राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की जीत का संकेत दे रहे हैं। लेकिन इन सकारात्मक अनुमानों के बीच एक आंकड़ा एनडीए शिविर में बेचैनी का कारण बन गया है। यह आंकड़ा है बिहार में हुआ रिकॉर्ड तोड़ मतदान। इस बार राज्य में 66.91 प्रतिशत मतदान हुआ है जो 1952 के बाद से अब तक का सबसे अधिक है। बिहार के चुनावी इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जब बढ़े हुए मतदान ने सत्ता परिवर्तन का संकेत दिया है। आइए समझते हैं कि एनडीए को इस बढ़े हुए मतदान से चिंता क्यों है।
एग्जिट पोल का निष्कर्ष
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए आए अधिकतर एग्जिट पोल राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पक्ष में दिखाई दे रहे हैं। विभिन्न सर्वेक्षण एजेंसियों ने अनुमान लगाया है कि एनडीए को 150 से 170 के बीच सीटें मिल सकती हैं। वहीं महागठबंधन के लिए 100 से कम सीटों का अनुमान जताया गया है। बिहार विधानसभा में कुल 243 सीटें हैं और बहुमत के लिए 122 सीटों की आवश्यकता होती है।
हालांकि दो एग्जिट पोल ऐसे भी हैं जिन्होंने कांटे की टक्कर की बात कही है। इन सर्वेक्षणों में दोनों गठबंधनों को लगभग बराबर सीटें मिलने का अनुमान लगाया गया है। लेकिन समग्र तस्वीर एनडीए के पक्ष में ही दिखाई देती है। इसके बावजूद एनडीए शिविर में एक चिंता की लकीर खिंची हुई है और वह है रिकॉर्ड तोड़ मतदान प्रतिशत।
रिकॉर्ड मतदान का आंकड़ा
इस बार बिहार में कुल मिलाकर 66.91 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया है। यह आजादी के बाद से बिहार में हुए सभी विधानसभा चुनावों में सबसे अधिक मतदान है। पिछले चुनाव यानी 2020 की तुलना में यह मतदान लगभग 9 प्रतिशत अधिक है। 2020 के चुनाव में केवल 57.29 प्रतिशत मतदान हुआ था। यह भारी वृद्धि सभी राजनीतिक दलों और विश्लेषकों के लिए आश्चर्य का विषय बनी हुई है।
मतदान में यह इजाफा सभी चरणों में देखने को मिला। पहले चरण से लेकर अंतिम चरण तक मतदाताओं ने बढ़चढ़कर अपने मताधिकार का प्रयोग किया। चुनाव आयोग के अधिकारियों ने भी इस उच्च मतदान प्रतिशत को लोकतंत्र के प्रति जनता की प्रतिबद्धता बताया है। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार बढ़ा हुआ मतदान अक्सर परिवर्तन की इच्छा का संकेत होता है।
चुनावी इतिहास के सबक
बिहार के चुनावी इतिहास में कई ऐसे उदाहरण हैं जब मतदान प्रतिशत में उल्लेखनीय वृद्धि के बाद सत्ता परिवर्तन हुआ है। विशेष रूप से तीन चुनाव ऐसे रहे हैं जब 5 प्रतिशत या उससे अधिक मतदान बढ़ने के बाद मौजूदा सरकार बदल गई। इन ऐतिहासिक उदाहरणों को समझना जरूरी है क्योंकि ये वर्तमान स्थिति को समझने में मदद करते हैं।
पहला उदाहरण 1967 के चुनाव का है। 1962 के चुनाव की तुलना में 1967 में लगभग 7 प्रतिशत अधिक मतदान हुआ था। इस बढ़े हुए मतदान का परिणाम यह हुआ कि लंबे समय से सत्ता में काबिज कांग्रेस पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। यह बिहार में गैर-कांग्रेसी सरकारों के गठन की शुरुआत थी। इस चुनाव ने बिहार की राजनीति में एक नए युग का सूत्रपात किया।
1980 और 1990 के चुनावी पैटर्न
1980 का चुनाव बिहार की राजनीति में एक और महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। इस चुनाव में 57.3 प्रतिशत मतदान हुआ था जबकि 1977 में केवल 50.5 प्रतिशत ही मतदान हुआ था। इस प्रकार लगभग 7 प्रतिशत की वृद्धि देखने को मिली। परिणाम में फिर से सत्ता परिवर्तन हुआ और मौजूदा सरकार को जाना पड़ा। यह पैटर्न साफ संकेत देता था कि जब मतदाता बड़ी संख्या में मतदान केंद्रों पर आते हैं तो वे परिवर्तन चाहते हैं।
1990 का चुनाव भी इसी पैटर्न को दोहराने वाला रहा। इस चुनाव में मतदान प्रतिशत में 5.7 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। नतीजा वही निकला जो पहले दो बार हुआ था। कांग्रेस की सरकार को विदाई लेनी पड़ी और जनता दल की सरकार बनी। इन तीनों उदाहरणों ने बिहार की राजनीति में एक स्पष्ट संदेश दिया कि बढ़ा हुआ मतदान अक्सर परिवर्तन का संकेत होता है।
विपक्ष की व्याख्या
विपक्षी दलों के नेता इस बढ़े हुए मतदान को अपने पक्ष में बता रहे हैं। महागठबंधन के नेताओं का कहना है कि जनता परिवर्तन चाहती है और इसीलिए बड़ी संख्या में मतदान केंद्रों पर पहुंची है। उनका तर्क है कि जब लोग मौजूदा सरकार से संतुष्ट होते हैं तो वे कम संख्या में मतदान करते हैं। लेकिन जब उन्हें लगता है कि बदलाव की जरूरत है तो वे बड़ी संख्या में अपने मताधिकार का प्रयोग करते हैं।
राजद, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के प्रवक्ताओं ने कहा है कि यह मतदान एनडीए सरकार के खिलाफ जनता का वोट है। उनका दावा है कि विकास के नाम पर किए गए वादे पूरे नहीं हुए हैं और जनता इससे नाराज है। बेरोजगारी, महंगाई और कानून व्यवस्था जैसे मुद्दों पर सरकार की विफलता ने लोगों को मतदान केंद्रों पर खींच कर लाया है।
महिला मतदाताओं का रोल
हालांकि एनडीए शिविर के पास भी एक मजबूत तर्क है। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार इस बार महिला मतदाताओं ने पुरुषों की तुलना में अधिक संख्या में मतदान किया है। जहां पुरुष मतदाताओं का मतदान प्रतिशत 62.8 रहा वहीं महिला मतदाताओं का मतदान प्रतिशत 71.6 रहा। यह लगभग 9 प्रतिशत का अंतर है जो बेहद महत्वपूर्ण है।
बिहार की राजनीति में महिला मतदाताओं को नीतीश कुमार का समर्थक वर्ग माना जाता है। पिछले कई वर्षों में नीतीश सरकार ने महिलाओं के कल्याण के लिए कई योजनाएं चलाई हैं। साइकिल योजना, स्कूटी योजना, मुफ्त सिलाई मशीन और महिला सशक्तिकरण से जुड़ी अन्य पहलों ने महिलाओं के बीच नीतीश की छवि को मजबूत किया है। इसके अलावा शराबंदी जैसे फैसलों ने भी महिलाओं को नीतीश के करीब लाया है।
एनडीए की उम्मीद और चिंता
एनडीए शिविर का मानना है कि महिलाओं के भारी मतदान से उन्हें फायदा मिलेगा। उनका तर्क है कि जो महिलाएं अपने घरों से निकलकर मतदान करने आई हैं वे नीतीश कुमार की योजनाओं से प्रभावित हैं और उन्हें वोट देंगी। साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता भी महिला मतदाताओं में अधिक मानी जाती है। केंद्र सरकार की उज्ज्वला योजना, स्वच्छ भारत अभियान और अन्य कल्याणकारी योजनाओं ने भी महिलाओं को प्रभावित किया है।
हालांकि चिंता फिर भी बनी हुई है। ऐतिहासिक आंकड़े जो तस्वीर दिखा रहे हैं वह एनडीए के लिए चिंताजनक है। 9 प्रतिशत की वृद्धि पहले के तीन उदाहरणों से भी अधिक है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या इतिहास खुद को दोहराएगा। एनडीए के रणनीतिकार इस बात को लेकर सतर्क हैं और 14 नवंबर के परिणामों का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।
14 नवंबर का इंतजार
अब सभी की नजरें 14 नवंबर पर टिकी हैं जब मतगणना होगी और असली तस्वीर सामने आएगी। एग्जिट पोल कई बार गलत भी साबित हुए हैं इसलिए अंतिम परिणाम आने तक कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। एनडीए और महागठबंधन दोनों ही शिविर अपने-अपने दावे कर रहे हैं। एनडीए का कहना है कि विकास और सुशासन पर जनता ने उन्हें फिर से मौका दिया है जबकि विपक्ष का दावा है कि परिवर्तन की लहर है।
बिहार की जनता ने अपना फैसला कर दिया है और अब वह फैसला मतपेटियों में बंद है। चाहे परिणाम कुछ भी हो, यह तय है कि रिकॉर्ड मतदान ने इस चुनाव को बेहद रोचक और अप्रत्याशित बना दिया है। बिहार के राजनीतिक भविष्य का निर्धारण अगले कुछ दिनों में हो जाएगा। क्या इतिहास खुद को दोहराएगा या फिर एनडीए की उम्मीदें सच साबित होंगी, यह जल्द ही पता चल जाएगा।