मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत के शपथ समारोह से राहुल गांधी की अनुपस्थिति पर सियासी विवाद
भारत के नए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सूर्यकांत के पदभार ग्रहण के अवसर पर देश की सर्वोच्च न्याय व्यवस्था का महत्त्वपूर्ण अध्याय दर्ज हुआ। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा administered शपथ समारोह में शीर्ष राजनीतिक और सरकारी हस्तियों ने उपस्थिति दर्ज कराई। किंतु इस राष्ट्रीय अवसर पर विपक्ष के नेता राहुल गांधी की अनुपस्थिति ने राजनीतिक हलकों में तीखी बहस छेड़ दी। भारतीय जनता पार्टी ने इस अनुपस्थिति को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के प्रति विपक्ष की उपेक्षा करार दिया और आरोप लगाया कि कांग्रेस और उसके शीर्ष नेतृत्व को संवैधानिक संस्थाओं और उनकी गरिमा पर भरोसा नहीं राहा।
भाजपा के आरोप: संवैधानिक सम्मान पर उठता सवाल
भाजपा प्रवक्ता सी.आर. केसवन ने राहुल गांधी की गैर मौजूदगी पर कड़ा रुख अपनाते हुए सामाजिक मंच एक्स (पहले ट्विटर) पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन्होंने लिखा कि विपक्ष के नेता का राष्ट्रीय महत्व के ऐसे अवसर से अनुपस्थित रहना किसी साधारण कारण का परिणाम नहीं हो सकता। उन्होंने आरोप लगाया कि यह पहली बार नहीं है जब राहुल गांधी ने संवैधानिक कार्यक्रम से दूरी बनाई है। उन्होंने पूर्व में आयोजित उपराष्ट्रपति के शपथ ग्रहण तथा स्वतंत्रता दिवस समारोहों का उदाहरण देते हुए दावा किया कि यह रवैया कांग्रेस के नेतृत्व की सोच को उजागर करता है।
केसवन ने कहा कि कांग्रेस द्वारा लगाए गए इमरजेंसी जैसे निर्णय स्वयं इस बात की पुष्टि करते हैं कि पार्टी लोकतांत्रिक मर्यादाओं और संवैधानिक अधिकारों को कमजोर करने की प्रवृत्ति रखती है। भाजपा प्रवक्ता का यह भी कहना था कि डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा प्रस्तुत संविधान के प्रति कांग्रेस की नापसंदगी अब अधिक स्पष्ट हो रही है।
कांग्रेस की ओर से अभी तक चुप्पी: क्या संदेश देना चाहती है विपक्ष?
राहुल गांधी की अनुपस्थिति ने जहां भाजपा को तीखे हमलों का अवसर दिया, वहीं कांग्रेस ने इस मुद्दे पर अभी तक आधिकारिक जवाब नहीं दिया है। विपक्ष का मौन राजनीतिक रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है या यह भी संभव है कि पार्टी नेतृत्व इस विवाद को अनावश्यक महत्व नहीं देना चाहता।
कांग्रेस अपने रुख का खुलकर बचाव कब और कैसे करेगी, यह फिलहाल अस्पष्ट है। मगर इतना निश्चित है कि यह विषय आगामी संसदीय सत्रों और जनचर्चाओं में विपक्ष की धारणा पर प्रभाव डाल सकता है।
शपथ समारोह की गरिमा और न्यायपालिका की प्रतिष्ठा
राष्ट्रपति भवन में आयोजित इस समारोह में उपराष्ट्रपति सी. पी. राधाकृष्णन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, गृह मंत्री अमित शाह, कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल, स्वास्थ्य मंत्री जे. पी. नड्डा, वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल सहित अनेक प्रमुख केंद्रीय मंत्री उपस्थित रहे। यह सहभागिता न्यायपालिका के महत्व, उसकी गरिमा और लोकतांत्रिक ढांचे में उसकी सर्वोच्च भूमिका को दर्शाती है।
मुख्य न्यायाधीश न केवल न्यायालयों की कार्यशैली का मार्गदर्शन करते हैं, बल्कि देश की न्यायिक नीतियों और संवैधानिक व्याख्याओं की दिशा भी निर्धारित करते हैं। अतः इस समारोह में राजनीतिक दलों के शीर्ष नेताओं की मौजूदगी संवैधानिक व्यवस्था के सम्मान का प्रतीक बन जाती है।
राहुल गांधी की अनुपस्थिति और राजनीतिक संदेश
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राहुल गांधी की अनुपस्थिति को केवल व्यक्तिगत चुनाव या व्यस्तता की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। वर्तमान समय में जब न्यायपालिका और सरकार का संबंध कई संवेदनशील मुद्दों से गुजर रहा है, तब विपक्ष के नेता के रूप में उनकी सहभागिता अपेक्षित थी।
यदि राहुल गांधी ने किसी विशेष कारण से यह निर्णय लिया, तो भी एक स्पष्ट बयान से यह विवाद थम सकता है। किंतु चुप्पी इस बात की ओर संकेत कर सकती है कि विपक्ष यह संदेश देना चाहता है कि न्यायपालिका की कार्यप्रणाली, नियुक्तियां और निर्णयों पर गंभीर प्रश्न हैं।
संवैधानिक संस्थाओं का सम्मान: राजनीति बनाम परंपरा
लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष दोनों ही संवैधानिक ढांचे का महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। यदि कोई भी दल या नेता इस ढांचे से दूरी बना लेता है, तो इससे केवल राजनीतिक विवाद नहीं खड़े होते, बल्कि लोकतंत्र की संरचनात्मक विश्वसनीयता भी प्रभावित होती है।
भाजपा जहां इस मुद्दे को ‘संवैधानिक अवमानना’ से जोड़ रही है, वहीं यह भी संभव है कि कांग्रेस न्यायपालिका की स्वतंत्रता और पारदर्शिता को लेकर अपने राजनीतिक निष्कर्षों पर खड़ी हो। लेकिन प्रश्न यही है कि क्या इन चिंताओं को सार्वजनिक सम्मान और औपचारिक उपस्थिति के खिलाफ खड़ा किया जा सकता है?
राहुल गांधी की अनुपस्थिति केवल एक कार्यक्रम के बारे में नहीं, बल्कि सत्ता और विपक्ष के संबंध, लोकतंत्र की बुनियादी प्रतिष्ठा और संवैधानिक मूल्यों के प्रति राजनीतिक दृष्टिकोण की व्याख्या को जन्म देती है। भाजपा ने आरोपों का तीर छोड़ दिया है, अब कांग्रेस की प्रतिक्रिया का इंतजार है। यह विवाद केवल आरोप-प्रत्यारोप का विषय नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की संवैधानिक समझ का प्रतिबिंब भी है।