बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में 45 सीटों पर टिकी है एनडीए की नज़र
बिहार की सियासत एक बार फिर गर्म है। 2025 के विधानसभा चुनाव से पहले एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) ने अपनी रणनीति उन 45 सीटों पर केंद्रित कर दी है, जहां 2020 के चुनाव में जीत-हार का अंतर 5000 मतों से भी कम था। इन सीटों पर मामूली वोटों का फर्क चुनावी समीकरण को पूरी तरह पलट सकता है।
एनडीए के रणनीतिकार मान रहे हैं कि इन सीटों पर दोबारा मेहनत और संगठन की मजबूती से सत्ता की राह आसान हो सकती है। वहीं विपक्ष भी इन क्षेत्रों में पैठ बनाने में जुटा है।
एनडीए की चुनौती: जहां जीत और हार में था मामूली फर्क
वर्ष 2020 के चुनाव में कई विधानसभा क्षेत्रों में मुकाबला कांटे का रहा। कुछ जगहों पर तो जीत-हार का अंतर 1000 मतों से भी कम था।
उदाहरण के तौर पर, हिलसा से जेडीयू के कृष्ण मुरारी शरण मात्र 12 वोटों से विजयी हुए थे — यह बिहार के चुनावी इतिहास का सबसे छोटा अंतर माना गया।
वहीं बरबीघा में जेडीयू प्रत्याशी की जीत केवल 113 वोटों से हुई थी।
परबत्ता से जेडीयू उम्मीदवार 951 वोटों से विजयी हुए, लेकिन 2025 में यह सीट जेडीयू को नहीं मिली है।
इन क्षेत्रों में इस बार प्रत्याशी बदले जा चुके हैं ताकि स्थानीय असंतोष को दूर किया जा सके और नए चेहरे से उम्मीद की जा सके।
एक हजार से कम मतों से हारे उम्मीदवार भी फोकस में
एनडीए के कई उम्मीदवार 2020 में बहुत कम अंतर से हार गए थे।
बखरी में भाजपा प्रत्याशी रामशंकर पासवान 777 मतों से,
डेहरी में सत्यनारायण यादव 464 वोटों से,
भागलपुर में रोहित 113 मतों से और
कुढ़नी में केदार गुप्ता 712 वोटों से हार गए थे।
इस बार इन क्षेत्रों को ‘हाई इंटेंसिटी कॉन्स्टिट्यूएंसी’ की श्रेणी में रखा गया है। पार्टी कार्यकर्ताओं से बूथ स्तर पर मजबूत संगठन खड़ा करने के निर्देश दिए गए हैं।
पांच हजार से कम मतों से जीतने वाले नेताओं की स्थिति
2020 के चुनाव में झाझा से जेडीयू के दामोदर रावत 1679 वोटों से,
टेकारी से हम पार्टी के अनिल कुमार 2630 वोटों से,
आरा से भाजपा के अमरेंद्र प्रताप सिंह 3002 वोटों से,
मुंगेर से प्रणव कुमार 1244 वोटों से,
और सरायरंजन से मंत्री विजय चौधरी 3624 वोटों से विजयी हुए थे।
एनडीए इन सीटों पर भी अपनी पकड़ मजबूत करने में लगा है क्योंकि मामूली एंटी-इनकंबेंसी भी इन सीटों को विपक्ष के हाथ में दे सकती है।
हारकर भी ‘मुख्य फोकस’ में हैं ये सीटें
एनडीए के कई उम्मीदवार जो 2020 में 5000 से कम मतों से हारे थे, उन्हें इस बार भी मौका मिल सकता है।
बोधगया के हरि मांझी 4708 वोटों से,
औरंगाबाद के रामाधार सिंह 2243 वोटों से,
बक्सर के परशुराम चौबे 3892 वोटों से,
और राजापाकर के महेंद्र राम 1796 वोटों से हार गए थे।
पार्टी इन सीटों पर जातीय समीकरण, स्थानीय विकास और प्रत्याशी चयन पर विशेष रणनीति बना रही है।
रणनीति का नया फॉर्मूला: बूथ से लेकर ब्लॉक तक
एनडीए ने इन 45 सीटों पर माइक्रो मैनेजमेंट मॉडल लागू किया है।
प्रत्येक बूथ पर पन्ना प्रमुख की नियुक्ति की जा रही है, जो मतदाताओं से सीधा संवाद करेगा।
नीतीश कुमार और भाजपा दोनों ही दल इन सीटों पर संयुक्त जनसभाएं और घर-घर अभियान चला रहे हैं।
साथ ही, सोशल मीडिया और डेटा एनालिटिक्स का उपयोग कर स्थानीय मुद्दों की पहचान की जा रही है ताकि विपक्षी लहर को रोका जा सके।
विपक्ष की रणनीति भी आक्रामक
महागठबंधन (राजद, कांग्रेस, वामदल) ने भी इन 45 सीटों की पहचान की है और यहां वोट बैंक स्विंग पर काम किया जा रहा है।
तेजस्वी यादव के नेतृत्व में आरजेडी ने स्थानीय युवा कार्यकर्ताओं को इन सीटों पर सक्रिय किया है।
कांग्रेस भी अपने पुराने गढ़ों को पुनर्जीवित करने के प्रयास में है।
निष्कर्ष
बिहार की राजनीति में ये 45 सीटें निर्णायक साबित हो सकती हैं।
2020 में मामूली वोटों से हुई जीत-हार अब 2025 की सत्ता का रास्ता तय कर सकती है।
एनडीए के लिए ये चुनाव सिर्फ सत्ता बचाने का नहीं बल्कि विश्वास कायम रखने का होगा।
वहीं विपक्ष इन सीटों को ‘मिशन रिवर्स’ मानकर हर संभव दांव चल रहा है।