बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में महागठबंधन की कमजोर होती पकड़
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के परिणामों ने राज्य की राजनीति में एक बार फिर चौंकाने वाला संकेत दिया है। महागठबंधन, जो चुनाव से पहले बड़े दावों के साथ मैदान में उतरा था, उसे उम्मीद के बिल्कुल विपरीत बेहद करीबी मुकाबलों में अपनी सीटें बचानी पड़ीं। अंतिम परिणामों में गठबंधन ने कुल 35 सीटें जरूर हासिल कीं, परंतु इनमें से अधिकांश पर उसकी जीत बेहद कम अंतर से दर्ज हुई। यह स्थिति न केवल राजनीतिक रणनीति की कमज़ोरी को उजागर करती है, बल्कि मतदाताओं के बीच लगातार कम होते जनसमर्थन की ओर भी संकेत करती है।
महागठबंधन की 35 में से 22 सीटों पर दस हजार से कम मतों से जीत
महागठबंधन के उम्मीदवारों की जीत का विश्लेषण दर्शाता है कि इन 35 सीटों में 22 ऐसी थीं जहाँ जीत का अंतर दस हजार मतों से भी कम रहा। राजद, कांग्रेस और भाकपा-माले के उम्मीदवार जहाँ-तहाँ अपनी सीटें बचाने में सफल तो रहे, किंतु मतभेद स्पष्ट रूप से मौजूद रहा। राजद की 25 सीटों में से 16 पर जीत का अंतर कम पाया गया, जबकि कांग्रेस और भाकपा-माले के विधायक भी करीबी चुनावों में विजयी हुए।
चुनावी आंकड़ों पर दृष्टि डालें तो यह स्पष्ट होता है कि महागठबंधन के लगभग 62 प्रतिशत विधायक दस हजार से कम मतों के अंतर से सदन पहुँचे हैं। यह आँकड़ा महागठबंधन की चुनावी चुनौती और बढ़ते प्रतिस्पर्धी माहौल को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।
अत्यंत करीबी मुकाबले में जीती गई सीटें
कई सीटों पर तो जीत का अंतर एक हजार मतों से भी कम रहा। राजद के फैसल रहमान (ढाका से 178 मत), राहुल कुमार (जहानाबाद से 793 मत) और कुमार सर्वजीत (बोधगया से 881 मत) ने बेहद कम अंतर से जीत दर्ज की। यह तीनों सीटें इस चुनाव में सबसे अधिक प्रतिस्पर्धी मानी गईं।
राजद के अन्य विधायकों में आसिफ अहमद (बिस्फी, 8107 मत), अविनाश मंगलम (रानीगंज, 8530 मत), चंद्रशेखर (मधेपुरा, 7809 मत) समेत कई उम्मीदवारों ने भी बेहद कठिन मुकाबलों में जीत दर्ज की। इन परिणामों से स्पष्ट है कि राजद का जनाधार स्थिर नहीं है और कई स्थानों पर भाजपा और जदयू के उम्मीदवारों ने उन्हें कड़ी चुनौती दी।
कांग्रेस और माले की नजदीकी जीतों ने बदला समीकरण
कांग्रेस की छह जीती सीटों में से तीन पर जीत का अंतर दस हजार से कम रहा—चनपटिया में अभिषेक रंजन ने 602 मतों, फारबिसगंज में मनोज बिश्वास ने 221 मतों और वाल्मीकिनगर में सुरेन्द्र प्रसाद ने 1675 मतों से जीत हासिल की। इन परिणामों ने कांग्रेस को राहत दी, किंतु साथ ही यह भी संकेत दिया कि पार्टी को अपने क्षेत्रीय संगठन को मजबूत करने की आवश्यकता है।
भाकपा-माले के अरुण सिंह (काराकाट, 2836 मत) और संदीप सौरव (पालीगंज, 6655 मत) ने भी करीबी मुकाबलों में जीत दर्ज की, जिससे महागठबंधन को कुछ राहत जरूर मिली, परंतु ये जीतें भी गठबंधन की गिरती साख को नहीं छुपा सकीं।
एनडीए के 202 में से 41 विधायक भी जीते कम अंतर से
एनडीए भले ही इस चुनाव में बढ़त में दिखाई दिया, किंतु उसके कई उम्मीदवार भी नजदीकी मुकाबलों में विजयी हुए। कुल 202 सीटों में से 41 सीटों पर एनडीए उम्मीदवारों ने दस हजार से कम अंतर से जीत दर्ज की। इसमें भाजपा के 17, जदयू के 17, लोजपा (रा) के पाँच तथा हम और रालोमो के एक-एक विधायकों की नजदीकी जीतें शामिल रहीं।
भाजपा के बगहा से राम सिंह, हरसिद्धी से कृष्णनंदन पासवान, सीतामढ़ी से सुनील कुमार पिंटू, मधुबनी से राणा रणधीर, केवटी से मुरारी मोहन झा जैसे कई उम्मीदवारों ने चुनौतीपूर्ण मुकाबलों में जीत दर्ज की। इसी प्रकार जदयू के विशाल कुमार (नरकटिया), सोनम रानी (त्रिवेणीगंज), गोपाल अग्रवाल (ठाकुरगंज) समेत कई उम्मीदवारों ने भी कठिन चुनावों में विजय प्राप्त की।
लोजपा (रा) के संगीता देवी (बलरामपुर), संजय कुमार सिंह (सिमरी बख्तियारपुर) और अरुण कुमार (बख्तियारपुर) जैसे उम्मीदवारों ने भी कड़ा मुकाबला झेलते हुए जीत हासिल की।
नतीजों के राजनीतिक निहितार्थ
इन चुनावी परिणामों ने बिहार की राजनीति में नए प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं। महागठबंधन की अधिकांश सीटों पर बेहद कम अंतर से मिली जीत विपक्ष में मनोबल बढ़ाने का कारण बनी है। वहीं एनडीए के लिए भी यह संकेत है कि उन्हें अपने मतों को स्थायी करने के लिए और गंभीर रणनीति अपनानी होगी।
यह भी स्पष्ट है कि बिहार का मतदाता अब किसी भी दल को एकतरफा समर्थन देने को तैयार नहीं है। क्षेत्रीय मुद्दे, उम्मीदवार की व्यक्तिगत छवि, जातीय समीकरण और स्थानीय संघर्ष इन चुनावों में निर्णायक साबित हुए हैं।
भविष्य की चुनौतियाँ
महागठबंधन के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपने जनाधार को मजबूत बनाए रखना है। इतनी बड़ी संख्या में कम अंतर वाली जीतें बताती हैं कि विपक्ष द्वारा थोड़ी रणनीतिक मेहनत से कई सीटें हाथ से निकल सकती थीं। वहीं एनडीए को भी यह समझना होगा कि भले ही वह बहुमत में है, परंतु मतदाता उनके प्रति पूरी तरह आश्वस्त नहीं दिखता।
आगामी राजनीतिक परिस्थितियाँ दोनों गठबंधनों के लिए चुनौतीपूर्ण होने वाली हैं, और आने वाले वर्षों में बिहार की राजनीति एक नए दौर में प्रवेश कर सकती है।