देश की सांस्कृतिक चेतना और भाषाई आत्मसम्मान पर नई बहस
नई दिल्ली, 18 नवम्बर: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा रामनाथ गोयनका व्याख्यान में दिए गए भाषण के बाद देश में भाषा, शिक्षा और उपनिवेशवादी मानसिकता पर एक नया विमर्श तेज हो गया है। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में जहां शैक्षणिक ढांचे पर ब्रिटिश प्रभाव और भारतीय भाषाओं के महत्व पर विस्तृत रूप से चर्चा की, वहीं कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने उनकी इन बातों का स्वागत करते हुए इसे एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आह्वान बताया।
प्रधानमंत्री का संदेश: भाषा और विरासत के प्रति आत्मविश्वास का आह्वान
प्रधानमंत्री ने अपने वक्तव्य में इंग्लिश शासनकाल के दौरान थॉमस बैबिंगटन मैकाले द्वारा तैयार की गई शिक्षा नीति पर भी तीखी टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि 1835 में प्रस्तुत ‘मिनट ऑन इंडियन एजुकेशन’ ने भारत की शिक्षा प्रणाली को अंग्रेजी भाषा की ओर झुका दिया, और भारतीय भाषाओं को हाशिये पर धकेल दिया। उनके अनुसार, किसी भी राष्ट्र का विकास तभी संभव है जब वह अपनी जड़ों, अपनी भाषाओं और अपनी सांस्कृतिक विरासत के प्रति सम्मान की भावना रखे।
प्रधानमंत्री ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हुए कहा कि विश्व के किसी भी विकसित राष्ट्र को अपनी भाषा पर गर्व होता है और वे अपनी शिक्षा प्रणाली में स्थानीय भाषाओं को प्राथमिकता देते हैं। उन्होंने जापान, चीन और कोरिया का उदाहरण दिया, जिन्होंने वैश्विक विचारों को अपनाते हुए भी अपनी भाषाई पहचान को कभी कमजोर नहीं होने दिया। इसी संदर्भ में उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देने पर जोर दिया और कहा कि यह भारत के लिए एक ऐतिहासिक परिवर्तन साबित होगा।

भावनात्मक मोड बनाम चुनावी मोड: प्रधानमंत्री का नया दृष्टिकोण
प्रधानमंत्री ने अपने बयान में एक और रोचक बिंदु रखा—उन्होंने कहा कि अक्सर मीडिया में यह आरोप लगाया जाता है कि वे और उनकी सरकार हमेशा चुनावी मोड में रहते हैं। इस पर उन्होंने स्पष्ट किया कि वे चुनावी नहीं बल्कि ‘भावनात्मक मोड’ में रहते हैं, क्योंकि उनका लक्ष्य जनता की समस्याओं को समझना और समाधान की दिशा में कार्य करना है। यह वक्तव्य देश की शासन शैली पर भी नई चर्चा का विषय बना है।
उपनिवेशवादी मानसिकता से मुक्त होने का दशक: एक राष्ट्रीय मिशन का प्रस्ताव
अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि मैकाले की नीतियों के लगभग दो सौ वर्ष पूरे होने को हैं, और ऐसे समय में भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह उपनिवेशवादी मानसिकता से बाहर निकले। उन्होंने अगले दस वर्षों को इस दिशा में राष्ट्रीय संकल्प का दशक बनाने का आग्रह किया। उनके अनुसार, भारत को आने वाले समय में अपनी सांस्कृतिक जड़ों, भाषाओं और ज्ञान परंपराओं में नए आत्मविश्वास का संचार करना चाहिए।
शशि थरूर की प्रतिक्रिया: प्रशंसा के साथ विमर्श को विस्तार
कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने प्रधानमंत्री के संबोधन की सराहना करते हुए कहा कि प्रधानमंत्री ने भारत के विकास और ‘पोस्ट-कोलोनियल माइंडसेट’ की आवश्यकता को नई दृष्टि से सामने रखा है। थरूर ने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री ने भारत की आर्थिक स्थिरता और वैश्विक मंच पर उसकी उभरती हुई पहचान को प्रभावी ढंग से व्याख्यायित किया।
थरूर ने प्रधानमंत्री के ‘इमोशनल मोड’ वाले बयान का भी उल्लेख किया और कहा कि यह दृष्टिकोण देश की समस्याओं के समाधान से सीधे जुड़ा हुआ है। उनकी यह टिप्पणी राजनीतिक सीमाओं से परे एक सकारात्मक संवाद को जन्म देती है।
मैकाले की विरासत और भारतीय भाषाओं पर विमर्श
थरूर ने यह भी स्वीकार किया कि प्रधानमंत्री का भाषाई गौरव पर दिया गया जोर एक महत्वपूर्ण पहल है। उन्होंने प्रधानमंत्री की उस टिप्पणी पर भी ध्यान आकर्षित किया जिसमें उन्होंने कहा कि मैकाले की 200 साल पुरानी ‘गुलामी की मानसिकता’ को समाप्त करने की जरूरत है। थरूर ने इसे राष्ट्र के सांस्कृतिक पुनर्लेखन के लिए एक महत्वपूर्ण कदम बताया।
हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि काश प्रधानमंत्री यह उल्लेख भी करते कि रामनाथ गोयनका ने अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ही भारतीय राष्ट्रवाद और लोकतांत्रिक मूल्यों की आवाज को मजबूत किया था। यह टिप्पणी भाषा और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में संवाद के महत्व पर एक गहन दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है।
भाषाई पहचान और राष्ट्रीय निर्माण का भविष्य
प्रधानमंत्री और थरूर दोनों के वक्तव्यों ने भाषा, शिक्षा और राष्ट्रीय आत्मसम्मान पर एक व्यापक संवाद को जन्म दिया है। आज जब भारत वैश्विक मंच पर नई भूमिका निभा रहा है, ऐसे समय में भाषाई पहचान और सांस्कृतिक आत्मविश्वास का प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है।
प्रधानमंत्री ने जिस सांस्कृतिक आत्मविश्वास की परिकल्पना प्रस्तुत की है, वह न केवल शिक्षा प्रणाली के पुनर्गठन से जुड़ी है, बल्कि समाज की मानसिकता में परिवर्तन लाने का भी आह्वान करती है। वहीं शशि थरूर की प्रतिक्रिया यह दर्शाती है कि इस विमर्श को राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय दृष्टि के साथ देखे जाने की आवश्यकता है।
भारतीय भाषाओं के प्रति नई चेतना का उदय
भारतीय भाषाओं और सांस्कृतिक विरासत पर आधारित यह चर्चा सिर्फ एक राजनीतिक वक्तव्य नहीं, बल्कि भारत के आने वाले समय की शिक्षा और सांस्कृतिक दिशा तय करने वाला विमर्श है। आज जब युवा पीढ़ी वैश्विक मंच पर कदम रख रही है, ऐसे समय में भाषाई आत्मविश्वास और सांस्कृतिक पहचान का प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
प्रधानमंत्री के आवाह्न और थरूर की सहमति ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत आने वाले दशकों में अपनी भाषाई पहचान को नए आत्मविश्वास के साथ स्थापित करेगा। यह केवल शिक्षा प्रणाली नहीं, बल्कि समाज की मानसिकता को भी बदलने की प्रक्रिया का हिस्सा होगा।
यह समाचार IANS एजेंसी के इनपुट के आधार पर प्रकाशित किया गया है।