न्यायिक अधिकारियों की कैरियर-अवरुद्धता पर सुनवाई
संदर्भ एवं आदेश
न्यायालय ने 7 अक्टूबर 2025 को यह अमल किया कि देश भर के ज्यूडिशियल ऑफिसर्स के समक्ष कैरियर-स्टैग्नेशन की समस्या को एक पाँच-न्यायाधीश संविधान पीठ के समक्ष भेजा जाए।
इसके बाद 14 अक्टूबर को अदालत ने सुनवाई 28 अक्टूबर से शुरू करने का टाइमलाइन तय किया है।
मुख्य न्यायाधीश B. R. Gavai ने कहा कि कई राज्यों में ऐसा देखा गया है कि जो न्यायिक अधिकारी “सिविल जज (जूनियर डिविजन)” या “ज्यूडिशल मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी” पद पर सेवा प्रारंभ करते हैं, वे कभी “प्रिंसिपल डिस्ट्रिक्ट जज” पद तक भी नहीं पहुँच पाते।
यह स्थिति न्यायिक तंत्र की कार्यक्षमता, अधिकारी-प्रेरणा तथा संस्था-विश्वास पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है।
प्रमुख प्रश्न-चिन्ह
– क्या सीधे भर्ती होकर डिस्टिक्ट जज बने अभियोजन या प्रत्यक्ष नियुक्त अभियुक्तों द्वारा प्रमोशन-लाइन में आगे बढ़ लिए जाते हैं, जिससे नियमित एंट्री-लेवल अधिकारी पीछे रह जाते हैं?
– क्या राज्यों एवं उच्च न्यायालयों द्वारा प्रमोशन व वरिष्ठता निर्धारण की नियमावली में पर्याप्त पारदर्शिता एवं संतुलन नहीं है?
– यदि सामाजिक एवं न्याय-प्रेरित दृष्टि से देखा जाए, तो क्या यह उचित है कि कई अधिकारी अपनी सेवा-अवधि में उच्च पदावली तक नहीं पहुँच पाते?
न्यायालय ने इन एवं अन्य प्रश्नों को समाहित कर एक समग्र समाधान निकालने का ईरादा जताया है, जिससे न्यायिक सेवा में निष्पक्षता बढ़ सके।
चिकित्सकों-स्वास्थ्यकर्मियों के बीमा दावे-विवाद
पृष्ठभूमि
महामारी के दौरान Pradhan Mantri Garib Kalyan Package (PMGKP) के अंतर्गत कोविड-19 से लड़ने वाले स्वास्थ्यकर्मियों के लिए बीमा कवरेज प्रदान किया गया था।
लेकिन निजी क्लीनिक, डिस्पेंसरी या मान्यता-प्राप्त नहीं अस्पतालों में सेवा देने वाले चिकित्सकों तथा स्वास्थ्यकर्मियों के दावे अक्सर अस्वीकृत हो गए क्योंकि उन्हें यह प्रमाण देना मुश्किल हो गया कि वे “सरकारी निर्देश” पर कोविड-कालीन सेवा में शामिल थे।
सुप्रीम कोर्ट का रुख
न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया है कि “समाज हमें जरिये नहीं छोड़ेगा यदि हम अपने चिकित्सकों का ख्याल नहीं रखेंगे और उनके लिए खड़े नहीं होंगे।”
बेंच ने कहा कि यदि चिकित्सक कोविड-प्रत्युत्तर में लगे थे और कोविड-19 के कारण उनकी मृत्यु हुई है, तो यह महत्वपूर्ण है कि बीमा कंपनी को दावे को स्वीकार करने के लिये बाधित न किया जाए।
इसके अलावा केंद्र सरकार को अन्य समान या समवर्ती योजनाओं की जानकारी देने के निर्देश दिए गए हैं, ताकि न्यायालय व्यापक दिशा-निर्देश तैयार कर सके।
नजरिए एवं सामाजिक संदेश
यह मामला केवल बीमा-दावे का नहीं है, बल्कि यह इस प्रश्न को भी उजागर करता है कि संकट-काल में लाखों-करोड़ों रुपये की सेवा देने वाले स्वास्थ्यकर्मियों की सामाजिक सुरक्षा एवं न्याय-मान कितनी सुदृढ़ है। निजी अस्पतालों या क्लीनिक्स में कार्यरत हों या न हों — यदि उन्होंने महामारी से लड़ाई में हिस्सा लिया है, तो उन्हें भी समान सम्मान, सुरक्षा और न्याय मिलना चाहिए।
दोनों विषयों की समग्र समीक्षा
न्यायपालिका में विश्वास और प्रेरणा
न्यायिक अधिकारियों की कैरियर-अवरुद्धता अगर अनदेखी बनी रह जाती है, तो यह केवल उन व्यक्तियों की समस्या नहीं रहेगी — इससे न्याय संस्थाओं में भरोसा, न्यायालयीन प्रेरणा और उनकी निष्पादन क्षमता प्रभावित होगी। न्यायपालिका को स्वयं-विश्वास के साथ आगे बढ़ने के लिए न्याय-सुधारों की आवश्यकता स्पष्ट होती जा रही है।
कोविड-योद्धाओं के प्रति सामाजिक उत्तरदायित्व
चिकित्सक एवं स्वास्थ्यकर्मी, जिन्होंने अपने जीवन को जोखिम में डालकर महामारी-सेवा की है, उनकी सुरक्षा एवं सम्मान सुनिश्चित करना किसी भी समाज के लोकतांत्रिक एवं मानवीय मूल्यों का मूल तत्व है। न्यायालय का यह चरण उनके प्रति समाज-सुनवाई का संकेत है।
संकेत और आगे का रास्ता
– न्यायालय ने इन दोनों मामलों में संकेत दिया है कि निष्कर्ष या आदेश केवल तकनीकी नहीं हों, बल्कि संस्थागत सुधार, नीति-निर्धारण और सामाजिक न्याय को मजबूत करने वाले हों।
– यह प्रक्रिया निष्पक्ष सुनवाई, समुचित प्रतिनिधित्व और नियम-निर्धारित प्रमोशन-मानदंडों के निर्माण की ओर अग्रसर है।
– भविष्य में शासन-न्याय प्रशासकीय मशीनरी को यह ध्यान देना होगा कि नियम-कानून तथा कार्यान्वयन में विसंगति न हो, विशेषकर ऐसे संवेदनशील विषयों में जहाँ मानव-जीवन, सेवा-बल और न्याय-प्रक्रिया सभी ओहदे पर हों।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि आज के इस दौर में न्याय-प्रक्रिया एवं सार्वजनिक-सेवा दोनों पर खरा उतरने वाले व्यक्तियों के सामने आने वाली चुनौतियों को केवल अधिसूचना या योजनाओं तक सीमित रखना पर्याप्त नहीं। यह हमारी संपन्न-लोकतांत्रिक व्यवस्था की परीक्षा भी है कि हम अपने न्यायिक और स्वास्थ्य-सेवा-कर्त्ताओं को समय पर, समान और न्याय-पूर्ण व्यवहार देकर कितनी गरिमा देते हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा उठाए गए यह कदम यह संकेत देते हैं कि अब परिवर्तन-का समय है — जहाँ न्याय मात्र शब्द नहीं, अनुभव-का नाम बनेगा।
यह समाचार पीटीआई(PTI) के इनपुट के साथ प्रकाशित किया गया है।