Minor Rape Victim Pregnancy: मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का एक ताजा फैसला न केवल कानून की व्याख्या करता है, बल्कि यह समाज, नैतिकता और संवेदनशीलता के कई पहलुओं को भी छूता है। एक 16 वर्षीय नाबालिग दुष्कर्म पीड़िता से जुड़े इस मामले में अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि पीड़िता की इच्छा के बिना गर्भपात की अनुमति नहीं दी जा सकती, चाहे परिस्थितियां कितनी ही जटिल क्यों न हों।
इस पूरे मामले में अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि पीड़िता के प्रसव से जुड़ा पूरा खर्च राज्य सरकार उठाएगी और बच्चे की डिलीवरी भोपाल के हमीदिया अस्पताल में विशेषज्ञ चिकित्सकों की निगरानी में कराई जाएगी।
पीड़िता की सहमति को बताया गया सर्वोपरि
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की जस्टिस विशाल मिश्रा की पीठ ने अपने आदेश में साफ कहा कि किसी भी परिस्थिति में पीड़िता की सहमति के बिना गर्भपात नहीं कराया जा सकता। अदालत के अनुसार, पीड़िता ने स्वयं यह स्पष्ट किया है कि वह बच्चे को जन्म देना चाहती है। ऐसे में उसकी इच्छा को नजरअंदाज करना कानून और नैतिकता दोनों के खिलाफ होगा।
यह टिप्पणी खास तौर पर इसलिए अहम मानी जा रही है क्योंकि पीड़िता नाबालिग है और आमतौर पर ऐसे मामलों में गर्भपात को प्राथमिक विकल्प के रूप में देखा जाता है। लेकिन अदालत ने यह संदेश दिया कि हर मामला एक जैसा नहीं होता और पीड़िता की व्यक्तिगत इच्छा को केंद्र में रखना आवश्यक है।
मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट ने निभाई अहम भूमिका
हाई कोर्ट ने मामले की गंभीरता को देखते हुए पहले एक मेडिकल बोर्ड से विस्तृत रिपोर्ट मंगवाई थी। मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार, पीड़िता की उम्र 16 वर्ष है और गर्भ की अवधि 29 सप्ताह और 1 दिन की है। रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया गया कि पीड़िता से गर्भपात और प्रसव दोनों विकल्पों पर राय ली गई, जिसमें उसने स्पष्ट रूप से बच्चे को जन्म देने की इच्छा जताई।
चिकित्सकीय दृष्टि से भी इस चरण में गर्भपात के जोखिमों को देखते हुए अदालत ने सावधानी बरतना जरूरी समझा।
राज्य सरकार को सौंपी गई जिम्मेदारी
अदालत ने राज्य सरकार को निर्देश दिए हैं कि वह पीड़िता की डिलीवरी से जुड़ी पूरी जिम्मेदारी निभाए। हमीदिया अस्पताल में विशेषज्ञ डॉक्टरों की टीम द्वारा सुरक्षित प्रसव सुनिश्चित किया जाएगा। साथ ही पीड़िता को आवश्यक चिकित्सा, पोषण और मानसिक सहयोग भी उपलब्ध कराया जाएगा।
माता-पिता ने किया किनारा
बाल कल्याण समिति की रिपोर्ट ने इस मामले को और संवेदनशील बना दिया। रिपोर्ट के अनुसार, पीड़िता के माता-पिता ने उसे अपने साथ रखने से इनकार कर दिया है और उससे सभी संबंध तोड़ने की बात कही है। यह स्थिति समाज के उस कठोर चेहरे को उजागर करती है, जहां पीड़िता ही सबसे ज्यादा अकेली पड़ जाती है।
हालांकि पीड़िता ने आरोपी से शादी करने और बच्चे को जन्म देने का फैसला अपनी मर्जी से किया है, लेकिन उसके पीछे की परिस्थितियां और सामाजिक दबाव भी सवाल खड़े करते हैं।
बाल कल्याण समिति की भूमिका
हाई कोर्ट ने बाल कल्याण समिति को निर्देश दिया है कि जब तक पीड़िता 18 वर्ष की नहीं हो जाती, तब तक उसकी और नवजात शिशु की पूरी देखभाल सुनिश्चित की जाए। इसमें आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा से जुड़े सभी पहलू शामिल हैं।
यह आदेश यह भी दर्शाता है कि न्याय केवल फैसला सुनाने तक सीमित नहीं है, बल्कि भविष्य की सुरक्षा सुनिश्चित करना भी उसका अहम हिस्सा है।