महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय चुनावों को लेकर एक नया मोड़ आ गया है। ओबीसी आरक्षण के विवाद में फंसे इन चुनावों पर सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एक अहम आदेश जारी किया है। इस फैसले ने राज्य की राजनीति में नई उलझन खड़ी कर दी है। अब सवाल यह उठ रहा है कि क्या जीतने वाले उम्मीदवारों को अपनी जीत का जश्न मनाने का मौका मिलेगा या नहीं।
सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र राज्य निर्वाचन आयोग को साफ निर्देश दिए हैं कि जिन स्थानीय निकायों में अभी चुनाव की अधिसूचना जारी नहीं हुई है, वहां 50 फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता। लेकिन जहां पहले से ही अधिसूचना जारी हो चुकी है, वहां चुनाव तय समय पर होंगे। हालांकि इन चुनावों के नतीजे अदालत के अंतिम फैसले पर निर्भर रहेंगे।
सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने ओबीसी आरक्षण को चुनौती देने वाली रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए यह आदेश दिया। अदालत ने कहा कि जिन नगर परिषदों और नगर पंचायतों में 50 फीसदी से अधिक आरक्षण की अधिसूचना जारी हो चुकी है, वहां चुनाव तो होंगे लेकिन परिणाम अंतिम नहीं होंगे।
इसका मतलब यह है कि कुछ उम्मीदवारों को जीतकर भी हारना पड़ सकता है। अगर अदालत ने बाद में आरक्षण को रद्द कर दिया तो जीते हुए उम्मीदवार की जीत भी रद्द हो सकती है। यह स्थिति महाराष्ट्र की स्थानीय राजनीति में एक अजीब असमंजस पैदा कर रही है।
2 दिसंबर को होगा मतदान
राज्य निर्वाचन आयोग की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता बलबीर सिंह ने अदालत को बताया कि 246 नगर परिषद और 42 नगर पंचायत ऐसी हैं जहां चुनाव प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। इन सभी जगहों पर 2 दिसंबर को मतदान होना तय है। इनमें से 40 नगर परिषद और 17 नगर पंचायत ऐसी हैं जहां आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक है।
वकील ने यह भी बताया कि राज्य में अभी भी 29 नगर परिषदों, 32 जिला पंचायतों और 346 पंचायत समितियों के चुनाव अधिसूचित होने बाकी हैं। इन सभी जगहों पर अब 50 फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकेगा।
अंतिम फैसले पर निर्भर रहेंगे नतीजे
मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले को तीन जजों की बेंच को भेज दिया है। अगली सुनवाई 21 जनवरी को होगी। अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि जहां चुनाव अधिसूचित हो चुके हैं, वहां तय समय पर चुनाव होंगे। लेकिन जिन नगर परिषदों और नगर पंचायतों में आरक्षण 50 फीसदी से अधिक है, उनके परिणाम रिट याचिका के अंतिम फैसले पर निर्भर करेंगे।
अदालत ने अपने आदेश में लिखा है कि नगर परिषदों और नगर पंचायतों के चुनाव अधिसूचित समय सारणी के अनुसार बिना किसी देरी के हो सकते हैं। लेकिन जहां आरक्षण 50 फीसदी से अधिक है, वहां के नतीजे अंतिम नहीं होंगे।
जाति की रेखाओं में नहीं बंटना चाहिए समाज
सुनवाई के दौरान निर्वाचन आयोग के वकील ने अदालत को बताया कि राज्य में केवल दो नगर निगम ऐसे हैं जहां आरक्षण 50 फीसदी से अधिक जाने की संभावना है। इस पर अदालत ने कहा कि इनके चुनाव भी अधिसूचित किए जा सकते हैं, लेकिन इनके परिणाम भी रिट याचिकाओं के नतीजों से प्रभावित होंगे।
सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि हम जो भी करें, समाज को जाति की रेखाओं में नहीं बांटना चाहिए। यह टिप्पणी आरक्षण के पूरे मुद्दे पर एक व्यापक सोच को दर्शाती है।
दिसंबर 2021 से अटके हैं चुनाव
महाराष्ट्र में ओबीसी आरक्षण की वजह से स्थानीय निकाय चुनाव दिसंबर 2021 से रुके हुए हैं। यह लगभग तीन साल का लंबा समय है। दिसंबर 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी आरक्षण पर रोक लगा दी थी। अदालत ने कहा था कि इसे ट्रिपल टेस्ट पूरा करने के बाद ही लागू किया जा सकता है।
ट्रिपल टेस्ट का मतलब है कि आरक्षण देने से पहले तीन शर्तें पूरी होनी चाहिए। पहली, राज्य चुनाव आयोग को निकाय की सीटों का आरक्षण तय करने के लिए कहना। दूसरी, ओबीसी समुदायों की सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन की अनुभवजन्य जांच। तीसरी, स्थानीय निकायों में ओबीसी समुदायों के प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता की जांच।
बंठिया आयोग का गठन
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद राज्य सरकार ने मार्च 2022 में जयंत कुमार बंठिया आयोग का गठन किया। इस आयोग को स्थानीय निकाय चुनावों में ओबीसी आरक्षण के मुद्दे की जांच करनी थी। बंठिया आयोग ने जुलाई 2022 में अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी।
आयोग ने अपनी रिपोर्ट में ओबीसी समुदायों की स्थिति और उनके प्रतिनिधित्व का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया। इस रिपोर्ट के आधार पर ही राज्य सरकार ने आरक्षण की नई व्यवस्था बनाई थी।
मई 2024 का आदेश
मई 2024 में सुप्रीम कोर्ट ने बंठिया आयोग की रिपोर्ट से पहले के कानून के अनुसार ओबीसी आरक्षण देकर चार महीने के भीतर चुनाव कराने का निर्देश दिया था। अदालत चाहती थी कि स्थानीय निकाय चुनाव जल्द से जल्द हों क्योंकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में देरी उचित नहीं है।
लेकिन पिछले हफ्ते अदालत ने कहा कि राज्य के अधिकारियों ने इस आदेश का गलत अर्थ निकाला है। अधिकारियों ने समझा कि आरक्षण 50 फीसदी से अधिक हो सकता है। अदालत ने स्पष्ट किया कि बंठिया आयोग से पहले की स्थिति के अनुसार चुनाव कराने का मतलब 50 फीसदी की सीमा पार करने की इजाजत नहीं है।
आरक्षण की संवैधानिक सीमा
भारतीय संविधान में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय की गई है। यह सीमा सुप्रीम कोर्ट ने इंद्रा साहनी केस में तय की थी। इस फैसले को मंडल कमीशन केस के नाम से भी जाना जाता है। अदालत ने कहा था कि आरक्षण योग्यता के सिद्धांत को खत्म नहीं कर सकता।
50 फीसदी की सीमा इसलिए तय की गई ताकि समाज में संतुलन बना रहे। अगर आरक्षण इससे अधिक हो जाए तो सामान्य वर्ग के लोगों के साथ अन्याय हो सकता है। इसलिए अदालत ने इस सीमा को बहुत महत्वपूर्ण माना है।
राजनीतिक असमंजस
सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश ने महाराष्ट्र की राजनीति में नई उलझन पैदा कर दी है। राजनीतिक दल इस स्थिति को लेकर परेशान हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि चुनाव प्रचार कैसे करें। क्योंकि जीत की गारंटी नहीं है।
उम्मीदवार भी असमंजस में हैं। वे नहीं जानते कि जीतने के बाद भी उनकी जीत बरकरार रहेगी या नहीं। यह स्थिति लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए चुनौतीपूर्ण है। लेकिन अदालत की मजबूरी यह है कि संविधान की मर्यादा बनी रहे।
आगे की राह
अब 21 जनवरी को अदालत में अगली सुनवाई होगी। तब तक चुनाव हो चुके होंगे। परिणाम भी आ चुके होंगे। लेकिन अंतिम स्थिति अदालत के फैसले के बाद ही साफ होगी। यह पूरा मामला महाराष्ट्र की स्थानीय राजनीति के लिए एक परीक्षा की घड़ी है।
राज्य सरकार को अब यह सुनिश्चित करना होगा कि भविष्य में आरक्षण के मुद्दे पर संवैधानिक सीमाओं का पालन हो। साथ ही पिछड़े वर्गों के हितों की भी रक्षा हो। यह संतुलन बनाना आसान नहीं है लेकिन जरूरी है।
यह पूरा विवाद बताता है कि आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दों पर कानूनी स्पष्टता बहुत जरूरी है। अन्यथा ऐसी स्थितियां बनती हैं जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधा बन जाती हैं।