जब देश के भविष्य की बात हो तो सिर्फ भाषणों से काम नहीं चलता
नागपुर की सिम्बायोसिस इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी के सभागार में 6 दिसंबर को जो कुछ हुआ, वह महज एक औपचारिक कार्यक्रम नहीं था। यह उस सोच का प्रतिबिंब था जो भारत को उसकी जड़ों से जोड़ते हुए आगे ले जाना चाहता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह सरकार्यवाह श्री अरुण कुमार जी ने संघ शताब्दी वर्ष के अवसर पर आयोजित ‘उत्तिष्ठ भारत’ प्राध्यापक संगोष्ठी में जो कहा, वह आज के दौर में हर भारतीय के लिए सोचने का विषय है।
आत्मविस्मृति से बाहर निकलने की जरूरत
अरुण कुमार जी ने अपने संबोधन में सबसे पहले उस बुनियादी समस्या को रेखांकित किया जो हमारे समाज को भीतर से कमजोर बना रही है – आत्मविस्मृति, आत्महीनता और परानुकरण की प्रवृत्ति। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि भारतीय चिंतन के प्रकाश में ही नए भारत का निर्माण होगा। यह कोई राजनीतिक नारा नहीं, बल्कि एक गहरी सांस्कृतिक आवश्यकता है।

हम अक्सर पश्चिम की नकल करते हुए अपनी जड़ों से कट जाते हैं। हमारी शिक्षा प्रणाली, हमारी जीवनशैली, यहां तक कि हमारी सोच भी कई बार दूसरों के नजरिए से प्रभावित हो जाती है। सह सरकार्यवाह जी ने इसी प्रवृत्ति को चुनौती देते हुए कहा कि जब तक हम अपने आप पर, अपनी विरासत पर विश्वास नहीं करेंगे, तब तक वास्तविक राष्ट्र निर्माण संभव नहीं है।
संघ शताब्दी वर्ष: उत्सव नहीं, आत्मावलोकन का समय
अरुण कुमार जी ने यह भी स्पष्ट किया कि संघ के लिए यह शताब्दी वर्ष महज जश्न मनाने का अवसर नहीं है। यह आत्मावलोकन, आत्म-विश्लेषण और आत्म-सुधार का समय है। उन्होंने कहा कि संघ का उद्देश्य केवल संगठन बनाना नहीं है, बल्कि समाज का निर्माण करना है। मनुष्य-निर्माण और राष्ट्रीय चरित्र का विकास ही संघ का असली लक्ष्य है।
यह दृष्टिकोण इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि आज के समय में हम अक्सर संस्थाओं के आकार और प्रभाव को ही सफलता का पैमाना मान लेते हैं। लेकिन संघ की सोच अलग है – वे समाज के हर गांव, हर शहर, हर जिले में जाकर लोगों को जागरूक और संगठित करना चाहते हैं। यह जमीनी स्तर पर बदलाव लाने की बात है, न कि सिर्फ ऊपर से थोपे गए परिवर्तन की।

डॉ. हेडगेवार की दूरदर्शी परिकल्पना
सह सरकार्यवाह ने संघ संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के विचारों का भी विस्तार से उल्लेख किया। डॉ. हेडगेवार जन्मजात देशभक्त थे और बचपन से ही उन्होंने ‘वंदे मातरम्’ को अपने जीवन का मंत्र बना लिया था। स्वतंत्रता संग्राम में उनकी और उनके साथियों की भागीदारी निर्विवाद है।
लेकिन डॉ. हेडगेवार की असली दूरदर्शिता यह थी कि उन्होंने भारत के पतन का कारण बाहरी आक्रमणकारियों में नहीं, बल्कि हमारी अपनी कमजोरियों में खोजा। वे कहते थे कि मुगल और अंग्रेज तो बहाना हैं, असली समस्या हम स्वयं हैं। हममें संगठन की कमी है, अनुशासन की कमी है, और सबसे बढ़कर राष्ट्रीय चरित्र की कमी है।
स्वामी विवेकानंद के विचारों से प्रभावित डॉ. हेडगेवार ने यह समझ लिया था कि भारत तब तक पराधीन रहेगा जब तक वह अपने आप को नहीं पहचानेगा। इसीलिए उन्होंने 1925 में संघ की स्थापना की और समाज की मूलभूत कमियों को दूर करने का बीड़ा उठाया।
राष्ट्रीय चरित्र और संगठन की जरूरत
अरुण कुमार जी ने एक बेहद दिलचस्प बात कही – भारत का व्यक्ति उत्तम चरित्रवाला होता है, लेकिन उसमें राष्ट्रीय चरित्र का अभाव है। यह अंतर समझना बहुत जरूरी है। एक व्यक्ति अपने निजी जीवन में ईमानदार, मेहनती और संस्कारी हो सकता है, लेकिन जब सार्वजनिक हित की बात आती है तो वह उदासीन हो जाता है।
हम अपने घर को तो साफ रखते हैं, लेकिन सड़क पर कूड़ा फेंकने में हिचकिचाते नहीं। हम अपने परिवार के लिए कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन देश के लिए छोटा सा त्याग भी भारी लगता है। यही राष्ट्रीय चरित्र का अभाव है।
इसी कमी को दूर करने के लिए डॉ. हेडगेवार ने शाखा की परिकल्पना की। नित्य लगने वाली शाखा में स्वयंसेवक एक हृदय, एक चित्त, एक मन और समान ध्येय से एकत्रित होते हैं। यह सहचित्तता ही वह माध्यम है जो व्यक्ति को अनुशासित बनाती है और उसे समाज तथा राष्ट्र से जोड़ती है।
स्व-त्रयी से स्व-तंत्र की यात्रा
सह सरकार्यवाह ने एक महत्वपूर्ण अवधारणा रखी – स्वतंत्रता से स्व-तंत्र की ओर। उन्होंने कहा कि हमारे पूर्वजों ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए स्व-त्रयी का लक्ष्य रखा था: स्वराज्य, स्वधर्म और स्वदेशी। 1947 में हमें राजनीतिक स्वतंत्रता मिली, लेकिन क्या हमने वास्तविक ‘स्व-तंत्र’ की स्थापना कर ली?
‘स्व’ का अर्थ है अपनी जड़ों से जुड़ना, अपनी परंपराओं को समझना, अपने तरीकों से आगे बढ़ना। लेकिन आज भी हम कई मामलों में पश्चिमी मॉडल की नकल कर रहे हैं। हमारी शिक्षा, हमारी अर्थव्यवस्था, हमारी न्याय प्रणाली – सब कुछ औपनिवेशिक ढांचे में ही चल रहा है। सच्चा परिवर्तन तभी आएगा जब हम ‘स्व’ को अपने जीवन का केंद्र बनाएंगे।
परिवर्तन की प्रक्रिया: बीज से वृक्ष तक
अरुण कुमार जी ने परिवर्तन को समझाने के लिए एक सुंदर उदाहरण दिया – बीज से वृक्ष बनने की यात्रा। यह परिवर्तन तात्कालिक नहीं होता, यह एक निरंतर प्रक्रिया है। बीज जमीन में गिरता है, अंकुरित होता है, पौधा बनता है, फिर वृक्ष, फिर फूल-फल और फिर से बीज। यह एक चक्रीय परिवर्तन है।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि परिवर्तन भाषणों, आंदोलनों या सत्ता से नहीं आता। हां, सत्ता अनुकूलता या प्रतिकूलता जरूर पैदा कर सकती है, लेकिन असली परिवर्तन तो आचरण से आता है। हमारा व्यवहार, हमारी जीवनशैली, हमारे मूल्य – यही वास्तविक बदलाव के माध्यम हैं।

इसलिए उन्होंने कहा कि हम जहां हैं, वहीं से शुरुआत करें। परिस्थितियों को कोसने से कुछ नहीं होगा। अगर हर व्यक्ति अपने स्तर पर आदर्श आचरण करे, तो समाज में बदलाव जरूर आएगा।
कार्य की प्रेरणा: स्वांत सुखाय और सर्वजन हिताय
सह सरकार्यवाह ने कार्य की प्रेरणा पर भी गहराई से बात की। उन्होंने स्वामी विवेकानंद के हवाले से कहा कि आध्यात्मिक अधिष्ठान पर ही समृद्ध और सुखी समाज का निर्माण होगा। लेकिन यह आध्यात्मिकता केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं है, यह हमारे कार्य में प्रकट होनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि हमारे कार्य की प्रेरणा दोहरी होनी चाहिए – स्वांत सुखाय और सर्वजन हिताय। यानी हम जो भी करें, वह हमें आंतरिक संतुष्टि दे और साथ ही समाज का भी हित करे। जब हम किसी काम में पूरी तरह तल्लीन हो जाते हैं, तो वह काम साधना बन जाता है।
उन्होंने अक्षर और नाद की साधना का उदाहरण देते हुए कहा कि जो व्यक्ति अपने कार्य में पूरी श्रद्धा और निष्ठा से लगा रहता है, उसे अक्षर ब्रह्म या नादब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है। यह कर्मयोग का ही एक रूप है।
पंच परिवर्तन: समाज को बदलने की पांच दिशाएं
अरुण कुमार जी ने समाज में जरूरी पांच बदलावों का भी जिक्र किया। पहला, समरसता से युक्त आचरण। भारत ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का मंत्रदाता है, लेकिन आज भी समाज में जाति, वर्ग और क्षेत्र के आधार पर भेदभाव मौजूद है। इसे खत्म करना होगा।
दूसरा, परिवार व्यवस्था को मजबूत बनाना। आज तीन पीढ़ियां एक साथ नहीं रहतीं। कुल परंपरा टूट रही है। इसे बचाना जरूरी है क्योंकि परिवार समाज की सबसे छोटी और सबसे मजबूत इकाई है।
तीसरा, पर्यावरणपूरक जीवनशैली अपनाना। जल का सदुपयोग करें, प्लास्टिक का उपयोग कम करें। चौथा और पांचवां परिवर्तन उन्होंने विस्तार से नहीं बताया, लेकिन यह स्पष्ट है कि ये सभी बदलाव व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर जरूरी हैं।
निष्कर्ष: महान लोगों से नहीं, महान समाज से बनता है महान देश
अपने संबोधन के अंत में सह सरकार्यवाह ने एक गहरी बात कही – कुछ महान लोगों से देश महान नहीं बनता, बल्कि जिस देश के लोग महान होते हैं, वह देश महान बनता है। यह बात हर भारतीय को समझनी चाहिए।
हम अक्सर नायकों, नेताओं और महापुरुषों की प्रतीक्षा करते हैं कि वे आकर हमारी समस्याएं हल कर देंगे। लेकिन वास्तविक बदलाव तो तब आता है जब समाज का हर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी समझे और उसे निभाए।
नागपुर में हुई यह संगोष्ठी महज एक औपचारिक कार्यक्रम नहीं था। यह उस सोच का प्रतिबिंब था जो भारत को उसकी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ते हुए आधुनिक बनाना चाहता है। अरुण कुमार जी का यह संदेश स्पष्ट था – भारतीय मूल्यों पर आधारित, आत्मविश्वास से भरा, संगठित और अनुशासित समाज ही नए भारत का निर्माण कर सकता है।