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Bangladesh Crisis: यूनुस सरकार को अपनों का ही अल्टीमेटम, कातिलों को पकड़ो वरना गिरेगी सरकार!

Bangladesh Crisis: यूनुस सरकार को अपनों का ही अल्टीमेटम
Bangladesh Crisis: यूनुस सरकार को अपनों का ही अल्टीमेटम
बांग्लादेश में मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार के खिलाफ असंतोष गहराता जा रहा है। इंकलाब मंच ने समर्थन वापस लेने और आंदोलन की चेतावनी दी है। छात्र नेताओं पर हमलों और न्याय में देरी ने राजनीतिक संकट को और गंभीर बना दिया है।
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Bangladesh Crisis: बांग्लादेश की राजनीति एक बार फिर ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहां सरकार और सड़क के बीच दूरी तेजी से कम होती जा रही है। जिस अंतरिम सरकार को देश में स्थिरता लाने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पटरी पर लाने की जिम्मेदारी दी गई थी, उसी सरकार के अस्तित्व पर अब सवाल खड़े होने लगे हैं। मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस की अगुवाई वाली अंतरिम व्यवस्था पर खतरे के बादल तब और गहरे हो गए, जब उसे सत्ता तक पहुंचाने में मदद करने वाले इंकलाब मंच ने ही समर्थन वापस लेने और आंदोलन की चेतावनी दे दी।

यह महज सत्ता संघर्ष नहीं है, बल्कि बांग्लादेश के युवा आंदोलनों, छात्र राजनीति और सरकार की जवाबदेही से जुड़ा एक बड़ा सवाल बन चुका है। जिस देश में हाल के वर्षों में छात्रों की आवाज ने सरकारों की नींव हिलाई है, वहां एक और टकराव की आहट लोगों को बेचैन कर रही है।

अंतरिम सरकार और टूटता भरोसा

मोहम्मद यूनुस की अंतरिम सरकार से जनता की अपेक्षा थी कि वह हिंसा, अराजकता और राजनीतिक प्रतिशोध के दौर पर विराम लगाएगी। लेकिन इंकलाब मंच का यह आरोप कि एक प्रमुख प्रवक्ता की हत्या के बाद भी प्रशासन ने ठोस कदम नहीं उठाए, सरकार की कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े करता है।

24 घंटे का अल्टीमेटम देना और उसके बाद कोई बड़ी गिरफ्तारी या निर्णायक कार्रवाई न होना, आंदोलनकारी संगठनों को यह संदेश देता है कि उनकी आवाज अनसुनी की जा रही है। इंकलाब मंच के नेता अब्दुल्ला अल जाबर का बयान इस असंतोष को खुलकर सामने लाता है, जिसमें उन्होंने कहा कि समय सीमा बीतने के बावजूद गृह सलाहकार या संबंधित अधिकारियों की ओर से कोई प्रत्यक्ष कदम नहीं उठाया गया।

अल्टीमेटम से आंदोलन की ओर

ढाका में विरोध प्रदर्शन शुरू करने की घोषणा अपने आप में बड़ा राजनीतिक संकेत है। यह प्रदर्शन केवल न्याय की मांग तक सीमित नहीं है, बल्कि यह तय करने का मंच बन सकता है कि यूनुस प्रशासन के साथ खड़ा होना है या उसे हटाने के लिए संघर्ष छेड़ना है।

यहां सवाल सिर्फ एक हत्या का नहीं है, बल्कि उस व्यवस्था का है जो कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी उठाती है। जब मंत्रालय की ब्रीफिंग में गृह सलाहकार और उनके विशेष सचिव की अनुपस्थिति सामने आती है, तो यह संदेह गहराता है कि कहीं इस पूरे मामले को हल्का दिखाने की कोशिश तो नहीं की जा रही।

छात्र राजनीति फिर निशाने पर

बांग्लादेश में छात्र आंदोलन हमेशा से सत्ता परिवर्तन की बड़ी ताकत रहे हैं। हालिया घटनाएं इस इतिहास को दोहराती नजर आती हैं। दक्षिण-पश्चिमी शहर खुलना में छात्र नेता मोतालेब सिकदर पर हुआ हमला केवल एक व्यक्ति पर हमला नहीं है, बल्कि यह पूरे छात्र आंदोलन पर सीधा वार माना जा रहा है।

सिर में गोली लगने के बाद सिकदर की गंभीर हालत ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या बांग्लादेश में असहमति की कीमत जान से चुकानी पड़ेगी। यह हमला ऐसे समय हुआ है, जब युवा नेता शरीफ उस्मान हादी की हत्या की गूंज अभी थमी भी नहीं थी।

हादी की मौत और सुलगता आक्रोश

शरीफ उस्मान हादी की सिंगापुर में इलाज के दौरान मौत ने देशभर में भावनात्मक उबाल पैदा कर दिया। वह सिर्फ एक नेता नहीं, बल्कि आने वाले चुनावों में उम्मीद का चेहरा माने जा रहे थे। अंतरिम सरकार ने उनकी मौत पर राष्ट्रव्यापी शोक तो घोषित किया, लेकिन सवाल यह है कि क्या शोक से भरोसा लौटता है।

ढाका और अन्य प्रमुख शहरों में भड़की हिंसा यह बताती है कि जनता अब केवल आश्वासन नहीं, बल्कि ठोस कार्रवाई चाहती है। हर नई गोली, हर नई हत्या सरकार की वैधता को कमजोर करती जा रही है।

अंतरिम सरकार के सामने कठिन राह

यूनुस प्रशासन के लिए यह समय बेहद नाजुक है। एक ओर उसे कानून-व्यवस्था संभालनी है, तो दूसरी ओर उन्हीं ताकतों को संतुष्ट करना है, जिन्होंने उसे सत्ता सौंपी थी। अगर इंकलाब मंच जैसा संगठन सड़क पर उतरता है, तो यह अंतरिम सरकार की नैतिक और राजनीतिक शक्ति के लिए बड़ा झटका होगा।

एक आम नागरिक के नजरिए से देखें, तो यह संघर्ष सत्ता और संगठन के बीच नहीं, बल्कि सुरक्षा और भविष्य के बीच है। लोग जानना चाहते हैं कि क्या उनकी आवाज सुरक्षित है, क्या उनका वोट मायने रखेगा, और क्या छात्र राजनीति को बंदूक की नोक पर दबाया जाएगा।

आगे क्या?

बांग्लादेश एक बार फिर ऐसे मोड़ पर है, जहां लिया गया हर फैसला इतिहास बन सकता है। अगर सरकार ने समय रहते सख्त और निष्पक्ष कदम नहीं उठाए, तो आंदोलन की आग पूरे देश में फैल सकती है। और अगर संवाद और न्याय का रास्ता चुना गया, तो शायद यह संकट स्थिरता की ओर ले जाए।

Dipali Kumari

दीपाली कुमारी पिछले तीन वर्षों से सक्रिय पत्रकारिता में कार्यरत हैं। उन्होंने रांची के गोस्सनर कॉलेज से स्नातक की शिक्षा प्राप्त की है। सामाजिक सरोकारों, जन-जागरूकता और जमीनी मुद्दों पर लिखने में उनकी विशेष रुचि है। आम लोगों की आवाज़ को मुख्यधारा तक पहुँचाना और समाज से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्नों को धारदार लेखन के माध्यम से सामने लाना उनका प्रमुख लक्ष्य है।