Khaleda Zia: बांग्लादेश की राजनीति में एक लंबे और प्रभावशाली अध्याय का आज 30 दिसंबर को अंत हो गया। देश की पूर्व प्रधानमंत्री और पहली महिला प्रधानमंत्री रहीं खालिदा जिया ने 80 वर्ष की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके निधन की खबर सामने आते ही न केवल बांग्लादेश, बल्कि भारत और दक्षिण एशिया की राजनीति में शोक की लहर दौड़ गई। खालिदा जिया सिर्फ एक राजनेता नहीं थीं, बल्कि वह उस दौर की प्रतिनिधि थीं, जिसने बांग्लादेश को सैन्य शासन से लोकतंत्र की ओर ले जाने में अहम भूमिका निभाई।
खालिदा जिया को अक्सर शेख हसीना के मुकाबले भारत विरोधी रुख रखने वाली नेता के रूप में देखा गया, लेकिन यह तस्वीर अधूरी है। उनका जीवन भारत से शुरू हुआ और इतिहास के तीन बड़े राजनीतिक बदलावों—भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश—का वह स्वयं जीवंत उदाहरण रहीं।
भारत में जन्म, विभाजन और पहचान की बदलती सीमाएं
खालिदा जिया का जन्म 1945 में आज के पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में हुआ था। उस समय न भारत विभाजित हुआ था और न ही पाकिस्तान अस्तित्व में आया था। जलपाईगुड़ी तब संयुक्त बंगाल का हिस्सा था और दिनाजपुर जिले के अंतर्गत आता था। 1947 के विभाजन ने न सिर्फ देशों की सीमाएं बदलीं, बल्कि लाखों लोगों की पहचान और नागरिकता भी बदल दी।
विभाजन के बाद उनका परिवार दिनाजपुर चला गया, जो उस समय पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा बन चुका था। इसी तरह खालिदा जिया ने अनजाने में तीन देशों की नागरिकता का अनुभव किया—पहले अविभाजित भारत, फिर पाकिस्तान और अंततः 1971 के बाद स्वतंत्र बांग्लादेश।
शिक्षा और शुरुआती जीवन
खालिदा जिया की प्रारंभिक शिक्षा दिनाजपुर के मिशनरी स्कूल में हुई। इसके बाद उन्होंने गर्ल्स कॉलेज से पढ़ाई पूरी की। पढ़ाई के दिनों से ही उनमें नेतृत्व के गुण दिखाई देने लगे थे, हालांकि उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि यही लड़की आगे चलकर बांग्लादेश की राजनीति की सबसे प्रभावशाली महिला बनेगी।
जिया-उर-रहमान से विवाह और सत्ता के करीब पहुंच
खालिदा जिया की शादी जिया-उर-रहमान से हुई, जो बांग्लादेश के राष्ट्रपति रहे। जिया-उर-रहमान बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख चेहरों में से एक थे। लेकिन 1981 में हुए तख्तापलट के दौरान उनकी हत्या ने खालिदा जिया के जीवन की दिशा ही बदल दी।
पति की हत्या के बाद वह सिर्फ एक राजनीतिक उत्तराधिकारी नहीं बनीं, बल्कि उन्होंने खुद को एक सशक्त नेता के रूप में स्थापित करने का फैसला किया।
सैन्य शासन के खिलाफ संघर्ष
1980 के दशक में बांग्लादेश पर सैन्य शासन का कब्जा था। जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद के खिलाफ खालिदा जिया ने सात दलों का गठबंधन तैयार किया। यह संघर्ष आसान नहीं था। 1983 से 1990 के बीच उन्हें सात बार हिरासत में लिया गया, लेकिन वह अपने रुख से कभी पीछे नहीं हटीं।
उन्होंने 1986 के चुनावों का बहिष्कार किया और लोकतंत्र की बहाली के लिए सड़कों से लेकर संसद तक संघर्ष जारी रखा।
प्रधानमंत्री के रूप में ऐतिहासिक कार्यकाल
1991 में खालिदा जिया पहली बार बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनीं और देश में संसदीय लोकतंत्र की पुनर्स्थापना की। वह बांग्लादेश की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं, जो अपने आप में एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी।
उन्होंने निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए अंतरिम सरकार की व्यवस्था को मजबूत किया। हालांकि उनका 2001 से 2006 का कार्यकाल विवादों से भी घिरा रहा। भ्रष्टाचार के आरोप, राजनीतिक टकराव और पारिवारिक विवाद उनके शासन की छाया बने रहे।
भारत के साथ संबंध और राजनीतिक छवि
भारत के प्रति खालिदा जिया का रुख हमेशा शेख हसीना से अलग रहा। जहां शेख हसीना को भारत समर्थक माना गया, वहीं खालिदा जिया पर भारत विरोधी राजनीति करने के आरोप लगे। इसके बावजूद यह सच है कि उनका जन्म, शिक्षा और शुरुआती जीवन भारत से जुड़ा रहा, जिसे वह कभी नकार नहीं सकीं।
अंतिम दौर और राजनीतिक विरासत
बीते वर्षों में लंबी बीमारी और कानूनी मामलों के चलते वह सक्रिय राजनीति से दूर रहीं। उनके बेटे तारिक रहमान भी कई विवादों में रहे, लेकिन हाल के समय में उनकी बांग्लादेश वापसी ने सियासी चर्चाओं को फिर तेज कर दिया था।
खालिदा जिया का निधन ऐसे समय हुआ है, जब बांग्लादेश एक बार फिर राजनीतिक बदलावों के दौर से गुजर रहा है। उनका जाना सिर्फ एक नेता का जाना नहीं, बल्कि एक पूरे राजनीतिक युग का अंत है।