आईएसआई की कश्मीर रणनीति क्यों हुई विफल: धन-लाभी आतंकियों के बाद अब पेशेवर मॉड्यूल बढ़ा रहे खतरा

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ISI Kashmir News: आईएसआई की कश्मीर पुनर्जीवन योजना क्यों असफल हुई और कैसे पेशेवर आतंकी मॉड्यूल बने नई चुनौती (Photo: IANS)
नवम्बर 18, 2025

आईएसआई की नई रणनीति और कश्मीर में बदलता आतंकी ढांचा

कश्मीर में आतंकवाद का बदलता स्वरूप

कश्मीर में पिछले कुछ वर्षों के दौरान आतंकवाद की प्रकृति में एक उल्लेखनीय परिवर्तन देखने को मिला है। आईएसआई और पाकिस्तान प्रायोजित संगठनों ने जिस प्रकार अपने मंसूबों को साधने की कोशिश की, वह अब गहरे संकट में दिखाई देती है। इसके पीछे मुख्य कारण यह है कि हाल के वर्षों में उनके द्वारा भर्ती किए गए अधिकांश आतंकी विचारधारा से अधिक वित्तीय लाभ के प्रति आकर्षित थे। धारा 370 हटने के बाद यह समस्या और गहराती चली गई, जिससे आतंकवादी ढांचे की रीढ़ कमजोर हो गई।

धन-लाभी आतंकियों की कमज़ोरी और रणनीतिक विफलता

जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे संगठनों ने पाया कि उनके नए भर्ती सदस्य किसी दृढ़ विचारधारा से प्रेरित नहीं थे। अधिकांश आतंकियों का मकसद सिर्फ आर्थिक फायदा उठाना था। सुरक्षा एजेंसियों ने भी कई बार यह उजागर किया कि नए आतंकी उग्रवाद का नाटक तो करते थे, लेकिन वास्तव में उनका लक्ष्य संगठन से मिलने वाला पैसा था।

ऐसे हालात में आईएसआई ने यह महसूस किया कि धन की लालसा में भर्ती हुए आतंकी उनकी दीर्घकालिक रणनीति को न तो सफल बना सकते हैं और न ही बड़े पैमाने पर हमले अंजाम दे सकते हैं। इसी कमजोरी के कारण आईएसआई ने रणनीतिक बदलाव का निर्णय लिया।

फरीदाबाद मॉड्यूल: शिक्षित और पेशेवरों का उभार

आईएसआई की नई सोच की सबसे ताज़ा मिसाल फरीदाबाद आतंकी मॉड्यूल है, जिसमें ज्यादातर सदस्य डॉक्टर थे। इन पेशेवरों की भूमिका सिर्फ आदेश मानने तक सीमित नहीं थी, बल्कि वे योजना, भर्ती, वित्तीय प्रबंधन और तकनीकी समन्वय के जिम्मेदार थे।

जांच में यह बात स्पष्ट हुई कि ये लोग पैसे के लिए नहीं, बल्कि स्वयं प्रेरित होकर आतंकी संगठन से जुड़े थे। उनकी स्वयं की उच्च आय थी और वे अपनी जेब से मॉड्यूल चलाने तक को तैयार थे। उनके पास कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं था, जो उन्हें सुरक्षा एजेंसियों की नज़र से बचाने में सहायक रहा।

स्व-उग्रवाद और अत्याधुनिक तकनीक का उपयोग

फरीदाबाद मॉड्यूल के लगभग सभी सदस्य किसी विश्वस्तरीय उग्रवादी कैंप में नहीं गए। इसके बजाय वे इंटरनेट पर उपलब्ध कट्टरवादी सामग्री से स्वयं ही प्रभाव‍ित हुए। यह आत्म-उग्रवाद (Self-Radicalisation) आतंकवाद की दुनिया में नया नहीं है, लेकिन भारत में इसे इस स्तर पर पहली बार इतनी गंभीरता से देखा गया।

इन पेशेवर सदस्यों ने उच्च तकनीक का उपयोग कर समन्वय बनाए रखा। वे थ्रीमा जैसी स्विस मैसेजिंग ऐप का उपयोग करते थे, जिसमें मोबाइल नंबर या ईमेल की आवश्यकता नहीं होती। इससे सुरक्षा एजेंसियों की निगरानी लगभग असंभव हो जाती है। यह तय करना भी कठिन हो जाता है कि कौन व्यक्ति किससे जुड़ा है और किन गतिविधियों का संचालन कर रहा है।

आईएसआई को शिक्षित आतंकियों से मिलता है लाभ

उच्च शिक्षित व्यक्तियों की भर्ती से आतंकी संगठनों को कई फायदे मिलते हैं। एक ओर वे अंतरराष्ट्रीय माहौल में जल्दी ढल जाते हैं, वहीं दूसरी ओर डिजिटल साक्षरता उन्हें ऑनलाइन प्रचार, भर्ती और फंडिंग संचालन में सक्षम बनाती है।
अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट जैसे संगठनों ने पिछले एक दशक से इस रणनीति का खूब इस्तेमाल किया है। अब पाकिस्तान-स्थित आतंकी संगठन इसी मॉडल की तरफ बढ़ रहे हैं।

कश्मीर में बदलते जमीनी नेटवर्क की नई परतें

कश्मीर में सुरक्षा एजेंसियों ने हाल के महीनों में पाया है कि आतंकी नेटवर्क अब पुराने ढांचे से हटकर छोटे, अत्यधिक प्रशिक्षित सेल के रूप में काम कर रहे हैं। ये सेल पारंपरिक हथियारों और लॉजिस्टिक सपोर्ट पर निर्भर नहीं रहते, बल्कि डिजिटल एन्क्रिप्शन, क्राउड-शैडो तकनीक और बिना पहचान वाले मोबाइल प्लेटफॉर्म का उपयोग कर पृथक रूप से कार्य करते हैं। इस बदलते ढांचे ने स्थानीय सुरक्षा संरचनाओं को अपनी रणनीति नए सिरे से तैयार करने के लिए मजबूर कर दिया है।

सीमा पार से संचालित मनोवैज्ञानिक युद्ध

आईएसआई केवल हथियार या धन ही नहीं भेज रहा, बल्कि मनोवैज्ञानिक युद्ध का भी सहारा ले रहा है। विदेशी हैंडलर युवाओं को भावनात्मक सामग्री, वीडियो क्लिप और झूठे नैरेटिव के माध्यम से उकसाते हैं। उनका लक्ष्य युवाओं में असंतोष का माहौल पैदा कर उन्हें डिजिटल माध्यमों से धीरे-धीरे कट्टर विचारधारा की ओर धकेलना है। यह प्रक्रिया बिना किसी भौतिक संपर्क के जारी रहती है, जिससे सुरक्षा एजेंसियों के लिए इसका पता लगाना और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

स्थानीय समर्थन में भारी गिरावट से बढ़ी बेचैनी

कश्मीर में स्थानीय आबादी द्वारा आतंकवाद के प्रति समर्थन में आई तीव्र कमी ने आईएसआई को अंदर तक झकझोर दिया है। जमीनी स्तर पर खुफिया नेटवर्क की मजबूती और आर्थिक प्रगति ने युवाओं को हिंसक रास्तों से दूर किया है। स्थानीय लोग अब आतंकी गतिविधियों की सूचना तुरंत प्रशासन तक पहुंचाते हैं, जिसके चलते विदेशी प्रायोजित मॉड्यूल को बार-बार विफलता का सामना करना पड़ रहा है। इसी बदलते माहौल ने आईएसआई को नए पेशेवर मॉड्यूल की ओर धकेला है।

सुरक्षा एजेंसियों की चुनौती और भविष्य का ख़तरा

भारत की खुफिया एजेंसियों का मानना है कि “व्हाइट-कॉलर आतंकवाद” का यह रुझान आने वाले वर्षों में और अधिक बढ़ सकता है। लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे संगठन अब ऐसे ही पेशेवर मॉड्यूल के माध्यम से भारत के भीतर गहरी पैठ बनाने की कोशिश कर सकते हैं।

इन मॉड्यूल की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इनके सदस्य आम नागरिकों की तरह दिखते हैं, उच्च शिक्षित होते हैं और तकनीक का बेहतरीन उपयोग जानते हैं। इस कारण पारंपरिक खुफिया निगरानी तंत्र इनकी पहचान करने में कठिनाई महसूस करता है।

आईएसआई की कश्मीर में नई रणनीति का पतन इस कारण हुआ कि धन-लाभी आतंकियों पर आधारित नेटवर्क कमजोर और अल्पकालिक साबित हुए। इस विफलता ने पाकिस्तान-स्थित संगठनों को मजबूर किया कि वे पेशेवर, तकनीक-समझ रखने वाले और स्व-उग्रवाद से प्रभावित व्यक्तियों की ओर रुख करें।
हालांकि यह रणनीति अधिक खतरनाक हो सकती है, परंतु भारतीय सुरक्षा एजेंसियां अब इस नए स्वरूप के आतंकवाद पर पैनी नज़र रखे हुए हैं।


यह समाचार IANS एजेंसी के इनपुट के आधार पर प्रकाशित किया गया है।

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