विधान परिषद की गरिमा की रक्षा के लिए कड़ा संदेश
महाराष्ट्र की राजनीति में एक बार फिर से तनाव का माहौल बन गया है। अहमदनगर ज़िले के जामखेड क्षेत्र से आने वाली खबर ने विधान परिषद के भीतर एक गंभीर विवाद को जन्म दिया है। यह विवाद सिर्फ एक सामान्य राजनीतिक टकराव नहीं है, बल्कि संस्थागत गरिमा और जनतांत्रिक मूल्यों को लेकर एक गहरा सवाल खड़ा करता है। विधान परिषद के सदस्य प्रवीण दरेकर और श्रीकांत भारतीय द्वारा प्रस्तुत विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव न केवल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (शरद पवार गुट) के नेता सूर्यकांत मोरे की आलोचना करता है, बल्कि संसदीय परंपरा और शिष्टाचार को लेकर एक व्यापक चिंतन प्रस्तुत करता है।
जामखेड नगरपरिषद चुनाव के दौरान जो घटनाएं घटीं, वे इस बात का प्रमाण हैं कि राजनीति की गर्मी कहां तक जा सकती है। 23 नवंबर 2025 को आयोजित एक सार्वजनिक सभा में सूर्यकांत हंसराव मोरे ने अपने भाषण के दौरान विधान परिषद के सभागृह को “लाल रंग का सूखा पड़ा हुआ क्षेत्र” कहकर संबोधित किया। यह केवल एक अनौपचारिक टिप्पणी नहीं थी, बल्कि यह एक सुविचारित और लक्ष्य भेद आलोचना थी जो संस्था की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के लिए की गई थी।
इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि मोरे ने विधान परिषद के सभापति राम शिंदे के प्रति भी अपमानजनक टिप्पणी की थी। जब कोई जनप्रतिनिधि अपनी राजनीतिक असहमति को संस्थागत आलोचना का रूप दे देता है, तो वह लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों को ही चुनौती देने लगता है।
संसद और विधान परिषद की गरिमा बनाए रखने की जिम्मेदारी
प्रवीण दरेकर और श्रीकांत भारतीय का यह पदक्षेप केवल एक राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं है, बल्कि संस्थागत मूल्यों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। उन्होंने स्पष्ट किया कि सूर्यकांत मोरे के बयान निंदनीय, आपत्तिजनक और सदन का अपमान करने वाले हैं। विधान परिषद में यह विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव इसी संरक्षण के उद्देश्य से लाया गया है।
सदन के विभिन्न सदस्यों ने इस प्रस्ताव को लेकर अपनी गंभीर चिंता व्यक्त की है। अनिल परब, अमोल मिटकरी और विक्रम काले जैसे अनुभवी सदस्यों ने कहा कि “लाल कार्पेट” जैसी गरिमामयी व्यवस्था को हल्के में लेने वाले व्यक्ति को उसकी सीमा दिखाना आवश्यक है। यह सिर्फ एक अलग मत नहीं है, बल्कि एक सामूहिक मत है जो सदन की ताकत और आत्मगरिमा को प्रदर्शित करता है।
संस्था के सम्मान की रक्षा में सर्वसम्मति
इस पूरे मामले में सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि विधान परिषद के सभी सदस्यों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया है। मनीषा कायंदे, राजेश राठौड़ और शशिकांत शिंदे जैसे सदस्यों ने भी इस बात पर जोर दिया कि सदन और उसके सभी सदस्यों का अपमान हुआ है। यह सर्वसम्मति इस बात का प्रमाण है कि राजनीतिक विभाजन के बावजूद, संस्थागत मूल्यों की रक्षा में सभी सदस्य एकजुट हैं।
विधान परिषद के सभापति राम शिंदे के प्रति की गई अपमानजनक टिप्पणी विशेष रूप से चिंताजनक है, क्योंकि सभापति का पद न केवल एक राजनीतिक पद है, बल्कि संस्थागत सौजन्य और परंपरा का प्रतीक है। जब किसी पद के धारक के प्रति अपमान व्यक्त किया जाता है, तो वास्तव में पूरी संस्था के प्रति अपमान व्यक्त किया जाता है।
लोकतंत्र की भाषा और सीमाएं
यह मामला हमें एक गहरे सवाल की ओर ले जाता है कि लोकतंत्र में आलोचना की सीमा कहां होनी चाहिए। राजनीतिक विरोध और संस्थागत अपमान के बीच एक बारीक रेखा होती है। जब कोई नेता किसी संस्था को “सूखा पड़ा हुआ क्षेत्र” कहता है, तो वह केवल आलोचना नहीं कर रहा, बल्कि संस्था की वैधता को ही चुनौती दे रहा है।
यह विशेषाधिकार हनन प्रस्ताव इस बात का स्पष्ट संदेश है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ संस्थागत सम्मान की भी रक्षा होनी चाहिए। इसे केवल एक राजनीतिक प्रतिशोध के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि सांस्कृतिक और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के रूप में देखा जाना चाहिए।
भविष्य के लिए एक चेतावनी
यह घटनाक्रम महाराष्ट्र की राजनीति में एक महत्वपूर्ण क्षण है। विधान परिषद का यह सर्वसम्मत निर्णय इस बात को दर्शाता है कि चाहे राजनीतिक मतभेद कितने भी गहरे हों, संस्थागत गरिमा की रक्षा सभी के लिए अपरिहार्य है। सूर्यकांत मोरे को अब इसके परिणाम का सामना करना होगा, लेकिन यह सिर्फ उन्हीं के लिए एक चेतावनी नहीं है, बल्कि सभी राजनेताओं के लिए एक स्पष्ट संदेश है।
विधान परिषद का यह रुख दिखाता है कि भारतीय लोकतंत्र में संस्थाओं की गरिमा केवल शब्दों में नहीं, बल्कि कार्यों में भी सुरक्षित है। यह घटना भविष्य में किसी भी व्यक्ति को संसदीय शिष्टाचार के मानदंडों का उल्लंघन करने से पहले सोचने के लिए प्रेरित करेगी।