बेगम रोकेया: जब एक महिला ने पूरे समाज के सोचने का तरीका बदल दिया
नौ दिसंबर का दिन भारतीय उपमहाद्वेश में इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण नारियों को याद करने का दिन है। आज से 93 साल पहले इसी दिन बेगम रोकेया सखावत हुसैन इस दुनिया को छोड़ कर चली गई थीं, लेकिन उन्होंने जो विचार बोए थे, वह हर पीढ़ी को प्रभावित करते रहेंगे। कलकत्ता के एचर्ड जगदीश चंद्र बोस रोड पर स्थित रोकेया मिनार पर जब फूल चढ़ाए जाते हैं, तब लगता है कि हम सिर्फ एक महिला को सम्मान नहीं दे रहे, बल्कि उस सपने को जीवित रख रहे हैं जिसके लिए उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी समर्पित कर दी।
बेगम रोकेया की यात्रा – अंधकार से प्रकाश की ओर
रंगपुर के पैरीबंद गांव में 1880 में जन्मी रोकेया सखावत हुसैन का जन्म एक उच्च परिवार में हुआ था, लेकिन वह परिवार उस समय के सबसे रूढ़िवादी विचारों से जकड़ा हुआ था। उनके पिता अरबी, फारसी, उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी सभी भाषाओं में दक्ष थे, पर उन्होंने बेटियों की शिक्षा को पाप माना। इसी कारण रोकेया को घर में ही गुप्त रूप से उनके भाई ने अंग्रेजी और बंगाली सिखाई। यह गुप्त शिक्षा ही बाद में एक क्रांति का कारण बनी। मात्र 16 साल की उम्र में उनका विवाह भागलपुर के डिप्टी मजिस्ट्रेट सैयद सखावत हुसैन से हुआ, जो खुशकिस्मती से एक प्रगतिशील विचारों वाले व्यक्ति थे। यह विवाह उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ।
शिक्षा ही एकमात्र अस्त्र – नारी मुक्ति का अभियान
1909 में अपने पति की मृत्यु के बाद बेगम रोकेया ने एक साहसिक कदम उठाया। सिर्फ पांच छात्राओं के साथ भागलपुर में सखावत मेमोरियल गर्ल्स स्कूल की स्थापना की। बाद में 1911 में जब वह कलकत्ता चली गईं, तो उन्होंने इसी स्कूल को फिर से खोला, और यह धीरे-धीरे एक संस्थान बन गया। लेकिन यह स्कूल सिर्फ एक शैक्षणिक संस्थान नहीं था – यह एक विद्रोह था, एक चेतना जागरण का केंद्र था। बेगम रोकेया घर-घर जाकर मुस्लिम परिवारों को समझातीं कि पर्दा बनाए रखते हुए भी बेटियों को शिक्षा देना संभव है और आवश्यक भी है।
उन्होंने यह साबित कर दिया कि इस्लाम और महिला शिक्षा आपस में विरोधाभासी नहीं हैं। स्कूल की बसों में पर्दे लगे होते थे, स्कूल में नमाज के लिए अलग कक्ष थे, और कुरान की पढ़ाई पाठ्यक्रम में शामिल थी – लेकिन लड़कियां पढ़-लिख रहीं थीं, अपने मन का विकास कर रहीं थीं। यह रणनीतिक समझदारी का बेजोड़ उदाहरण था।
साहित्य के माध्यम से सामाजिक क्रांति
बेगम रोकेया एक शिक्षिका मात्र नहीं थीं – वह एक विचारशील लेखक भी थीं। उनकी किताबें, विशेषकर “मतिचूर” (मीठी मोतियों की माला) और “सुल्तानाज ड्रीम” (सुल्तान का स्वप्न) आज भी समाज के सामने दर्पण रखती हैं। “सुल्तानाज ड्रीम” में उन्होंने एक काल्पनिक समाज की कल्पना की थी जहां महिलाएं सर्वोच्च शक्तिमान थीं, और पुरुष घर में रहते थे। यह सिर्फ एक कहानी नहीं थी – यह एक प्रश्न था समाज से कि क्यों महिलाओं को दोयम दर्जे का माना जाता है? उनकी लेखनी में व्यंग्य, तर्क और हल्के-फुल्के अंदाज में गहरी सामाजिक आलोचना थी।
महिलाओं को संगठित करने का काम
बेगम रोकेया सिर्फ किताबें नहीं लिखीं, बल्कि 1916 में “अंजुमन-ए-खवातीन-ए-इस्लाम” (इस्लामिक महिला समिति) की स्थापना की। यह संगठन महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करता था। समिति गरीब लड़कियों की शिक्षा के खर्च देती थी, विधवाओं को आर्थिक मदद देती थी, अनाथों को आश्रय देती थी, और महिलाओं को आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए कौशल सिखाती थी। यह आधुनिक समय के एनजीओ से बहुत अलग नहीं था, बस उस युग में इसे क्रांतिकारी माना जाता था।
आज के समय में बेगम रोकेया की प्रासंगिकता
2025 में जब हम बेगम रोकेया दिवस मना रहे हैं, तो सवाल यह है कि क्या उनका काम पूरा हो गया? भारत में महिला साक्षरता दर में वृद्धि हुई है, बांग्लादेश में महिलाएं हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहीं हैं, लेकिन क्या समाज की सोच पूरी तरह बदल गई है? हर दिन के समाचार सुनने से लगता है कि बेगम रोकेया का काम अभी भी अधूरा है। दहेज प्रथा है, बाल विवाह है, कन्या भ्रूण हत्या है, और कार्यस्थल पर महिलाओं का शोषण है। लेकिन यह दुःख की बात नहीं है – यह एक अलर्ट है कि हम उनके रास्ते पर और भी दृढ़ता से चलें।
बेगम रोकेया का संदेश हर नई पीढ़ी के लिए
जब माइनोरिटी फोरम के अध्यक्ष अहमद हसन इमरान रोकेया मिनार पर फूल चढ़ाते हैं, तो वह सिर्फ एक अनुष्ठान नहीं कर रहे। वह यह कह रहे हैं कि “देखो, एक महिला ने यह किया था, तो तुम भी कर सकते हो।” आजकी पीढ़ी को बेगम रोकेया के बारे में जानना बहुत जरूरी है क्योंकि वह सिर्फ एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व नहीं हैं – वह एक प्रेरणा हैं, एक दिशा हैं, एक आशा हैं। उनके जीवन से सीख मिलती है कि समाज को बदलने के लिए आपको खुद को बदलने की जरूरत नहीं है। आपको दृढ़ता से अपने सिद्धांतों पर चलना है, चाहे दुनिया आपको पागल कहे।
बेगम रोकेया ने कहा था कि “हम समाज का आधा भाग हैं, और अगर हम पिछड़ रहे हैं, तो समाज कैसे आगे बढ़ सकता है?” यह सवाल आज भी उतना ही प्रासंगिक है। उनकी लड़ाई शारीरिक नहीं थी, बल्कि विचारों की थी। और विचारों की लड़ाई कभी खत्म नहीं होती।
उपसंहार – एक अधूरे सपने की निरंतरता
बेगम रोकेया का जीवन एक अधूरा सपना नहीं है, बल्कि एक निरंतर प्रक्रिया है। हर वह लड़की जो स्कूल जा रहीं है, हर वह महिला जो अपने अधिकार के लिए आवाज उठा रहीं है, हर वह माता जो अपनी बेटी को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित कर रहीं है – वह सब बेगम रोकेया का सपना ही पूरा कर रहीं हैं। उनकी मृत्यु के 93 साल बाद भी उनकी विरासत हमारे समाज में जीवंत है। कलकत्ता की सड़कों पर, बांग्लादेश के गांवों में, भारत के प्रत्येक कोने में, जहां कहीं भी कोई महिला अपने अधिकार के लिए खड़ी होती है, वहां बेगम रोकेया का हाथ होता है।
आज के दिन हम उन्हें सिर्फ याद नहीं कर रहे, बल्कि उनके आह्वान को स्वीकार कर रहे हैं – और यह सपना कभी अधूरा नहीं होगा, क्योंकि हर दिन यह पूरा हो रहा है।