दरभंगा की गौरा बौराम सीट पर पैदा हुई असामान्य स्थिति
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में महागठबंधन के भीतर सीटों के बंटवारे को लेकर उत्पन्न असमंजस ने दरभंगा जिले की गौरा बौराम सीट पर एक अद्भुत और असामान्य स्थिति पैदा कर दी है। इस सीट पर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी यादव को अपनी ही पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ प्रचार करना पड़ रहा है। यह स्थिति तब उत्पन्न हुई जब राजद और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के बीच सीटों के बंटवारे पर अंतिम समझौता हो गया।
महागठबंधन में सीटों के बंटवारे के दौरान सहयोगी दलों के बीच सहमति नहीं बन पाई और कई मतभेद नामांकन के अंतिम दिन तक सुलझ नहीं पाए। इस कारण, गौरा बौराम सीट पर “फ्रेंडली फाइट” की स्थिति उत्पन्न हो गई, जिसमें एक ही गठबंधन के उम्मीदवार एक-दूसरे के खिलाफ मैदान में हैं।
अफजल अली खान का चुनावी दांव
दरअसल, राजद ने प्रारंभ में अफजल अली खान को गौरा बौराम से अपना उम्मीदवार घोषित किया। पार्टी ने उन्हें चुनाव चिन्ह और नामांकन पत्र सौंप दिए। अफजल अली खान, जो पटना से लगभग चार घंटे की यात्रा के बाद अपने निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव प्रचार शुरू करने निकले थे, इस समय तक पूरी तरह से आश्वस्त थे कि वे राजद के आधिकारिक उम्मीदवार हैं।
लेकिन उनके घर पहुँचने तक स्थिति बदल चुकी थी। राजद और वीआईपी के बीच समझौता हो गया और गौरा बौराम सीट वीआईपी उम्मीदवार संतोष साहनी के खाते में जाने वाली थी। राजद नेतृत्व ने अफजल अली खान से अपना चुनाव चिन्ह वापस करने और चुनाव से हटने का अनुरोध किया, लेकिन उन्होंने इसका पालन नहीं किया।
तेजस्वी यादव का विरोधाभासी प्रचार
अब स्थिति यह है कि तेजस्वी यादव को अपने ही पार्टी के चुनाव चिन्ह वाले उम्मीदवार के खिलाफ प्रचार करना पड़ेगा। वीआईपी उम्मीदवार संतोष साहनी को महागठबंधन के सभी सहयोगी दल समर्थन देंगे, जबकि अफजल अली खान की उम्मीदवारी को लेकर असमंजस और विरोधाभास स्थिति बन गया है।
चुनाव अधिकारियों का कहना है कि अफजल अली खान अपने नामांकन पत्र और आवश्यक दस्तावेज़ सही तरीके से जमा कर चुके हैं, इसलिए उन्हें चुनाव मैदान से नहीं हटाया जा सकता। ऐसे में ईवीएम पर उनके नाम के बगल में राजद का लालटेन चिन्ह दिखाई देगा।
चुनाव परिणाम पर पड़ सकता है असर
इस प्रकार की स्थिति, जहां एक ही पार्टी के नेता अपने ही उम्मीदवार के खिलाफ प्रचार कर रहे हों, न केवल मतदाताओं को भ्रमित कर सकती है, बल्कि चुनाव परिणामों पर भी गंभीर असर डाल सकती है। यदि वोट विभाजित हुआ तो वीआईपी और राजद के बीच करीबी मुकाबला होने की संभावना बढ़ जाएगी।
ऐसे ही उदाहरण पहले भी देखे गए हैं। लोकसभा चुनाव में राजस्थान के बांसवाड़ा में कांग्रेस और भारत आदिवासी पार्टी के बीच इसी प्रकार का विरोधाभास देखा गया था। परिणामस्वरूप, उम्मीदवारों को मतों के महत्वपूर्ण हिस्से मिले, लेकिन नजदीकी मुकाबले में चुनाव परिणाम प्रभावित हुए।
गौरा बौराम सीट का चुनावी इतिहास
गौरतलब है कि 2020 में गौरा बौराम सीट वीआईपी के स्वर्ण सिंह के खाते में गई थी, लेकिन बाद में सिंह भाजपा में शामिल हो गए। इसके पहले 2010 और 2015 में यह सीट जदयू के पास रही थी। इस बार की असामान्य परिस्थिति इस सीट के चुनावी इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ रही है।
निष्कर्ष
दरभंगा की गौरा बौराम सीट इस चुनाव में न केवल राजनीतिक समीकरणों बल्कि गठबंधन के भीतर मतभेद और विवाद की भी परीक्षा लेने वाली है। यह देखना दिलचस्प होगा कि मतदाता इस असामान्य परिस्थिति में किस पक्ष को प्राथमिकता देते हैं और गठबंधन के भीतर इस तरह की असमंजसपूर्ण स्थिति का चुनाव परिणाम पर क्या प्रभाव पड़ता है।