प्रशांत किशोर: चुनावी हार से बेचैनी, मगर संघर्ष जारी रहने का ऐलान
बिहार में जन सुराज की करारी हार और पीके का दर्द
पटना/नई दिल्ली। बिहार विधानसभा चुनाव 2025 ने कई राजनीतिक समीकरण बदल दिए। इन बदलावों में सबसे प्रमुख नाम है जन सुराज पार्टी के संस्थापक और चुनावी रणनीतिकार के रूप में पहचान बना चुके प्रशांत किशोर। चुनाव में एक भी सीट न जीत पाने के बाद अब उन्होंने चुनावी नतीजों पर अपनी पीड़ा और संघर्ष जारी रखने की प्रतिबद्धता सार्वजनिक की है।
नींद न आना, सदमे में होना और आत्मविश्लेषण जैसे भावनात्मक पहलुओं को व्यक्त करते हुए प्रशांत किशोर ने कहा कि चुनाव परिणाम आने के बाद से वह ठीक से सो नहीं पा रहे हैं। इन शब्दों ने साफ कर दिया कि चुनावी हार उनके लिए केवल राजनीतिक विफलता नहीं, बल्कि एक गहरी व्यक्तिगत चुनौती भी है।
जन सुराज का चुनावी सफर: मुद्दों पर लड़ाई, लेकिन जनता ने नहीं दिया साथ
जन सुराज ने इस चुनाव में जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण से अलग हटकर रोजगार, पलायन और आर्थिक अवसरों जैसे वास्तविक मुद्दों को आधार बनाया। प्रशांत किशोर ने इस बात पर जोर देते हुए कहा कि उनकी पार्टी ने चुनावी माहौल को बदलकर चुनाव को सही मुद्दों की ओर मोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उनका कहना था कि बिहार में चार तरह के मतदाता हैं — जाति आधारित वोटर, धर्म आधारित वोटर, डर के कारण एनडीए को वोट देने वाले और भाजपा के खिलाफ विपक्ष को वोट देने वाले। इनमें से पहले दो समूहों को वे प्रभावित करने में सफल रहे, लेकिन तीसरे और चौथे समूह को उनके अभियान से जुड़ाव महसूस नहीं हुआ।
“हम हार को स्वीकार करते हैं, लेकिन हार नहीं मानते”
जन सुराज के लिए यह हार भले ही एक करारी चोट साबित हुई हो, पर पीके ने दृढ़ संकल्प के साथ कहा कि वे अब पीछे नहीं हटेंगे। उन्होंने खुद की तुलना भाजपा की शुरुआती स्थिति से करते हुए कहा कि भारतीय जनता पार्टी के भी एक समय केवल दो सांसद हुआ करते थे और आज वे राष्ट्रीय शक्ति बन चुकी हैं। इसलिए हार आज की है, पर जीत भविष्य की भी हो सकती है।
उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी ने न जातीय जहर फैलाया, न धार्मिक ध्रुवीकरण का सहारा लिया। यदि राजनीति को सही दिशा देनी है, तो सच्चे मुद्दों के लिए लंबी लड़ाई जरूरी है। प्रशांत किशोर ने दावा किया कि वह बिहार को 10 साल समर्पित कर चुके हैं, और आने वाले सालों में भी इसी दिशा में कार्य जारी रहेगा।
चुनावी गणित की चूक: बिना सर्वे, बिना आकलन सीधे मैदान में
चुनावी विशेषज्ञ माने जाने वाले प्रशांत किशोर ने इस बार बिना किसी पूर्व सर्वेक्षण या वैज्ञानिक विश्लेषण के चुनाव लड़ने का फैसला किया। उनका कहना था कि उन्होंने अनुमान लगाया था कि जन सुराज को 12 से 15 प्रतिशत वोट मिलेंगे, लेकिन परिणाम मात्र 3.5 से 4 प्रतिशत तक सीमित रह गया।
यह अनुमान और वास्तविकता के बीच का अंतर न केवल रणनीतिक गलती साबित हुआ, बल्कि इससे जनता के व्यवहारिक मतदान पैटर्न को समझने की आवश्यकता भी उजागर हुई।
जेडीयू पर निशाना और चुनावों से पहले ‘बड़ी राशि वितरण’ का दावा
इस चुनाव से पहले पीके ने दावा किया था कि जेडीयू 25 से अधिक सीटें नहीं जीतेगी, लेकिन चुनाव परिणामों ने उनके इस विश्लेषण को गलत साबित कर दिया। जेडीयू की 80 से अधिक सीटों की जीत ने सबको चौंका दिया।
जब इस पर सवाल उठाया गया तो प्रशांत किशोर ने दावा किया कि सरकार ने चुनाव से पहले 1.2 करोड़ से अधिक महिलाओं को 10,000 रुपये की सहायता दी। इस योजना को उन्होंने चुनावी लाभ देने वाला तत्व बताया, जिसके चलते उनकी भविष्यवाणी धराशायी हो गई।
बिहार की राजनीति की नई दिशा: क्या जन सुराज का संघर्ष रंग लाएगा?
बिहार वर्षों से जातीय राजनीति की गिरफ्त में है। रोजगार, पलायन, कृषि और उद्योग के मुद्दों पर चर्चा के बावजूद वोट बैंक का निर्धारण जाति और धर्म आधारित मानसिकता से होता रहा है। ऐसे में जन सुराज द्वारा मुद्दों आधारित राजनीति करने का प्रयास भले ही असफल साबित हुआ हो, लेकिन इसके जरिए बिहार में संवाद की नई शुरुआत जरूर हुई है।
आने वाले वर्षों में यह सवाल महत्वपूर्ण रहेगा कि क्या पीके अपनी रणनीतिक और जमीनी समझ के बल पर एक नए राजनीतिक विकल्प का निर्माण कर पाएंगे? या फिर जन सुराज भी बिहार की बदलती राजनीति के शोर में खो जाएगी?