कोलकाता के बोस पुकुर रोड पर हुई एक मर्मांतक घटना ने शहर के मध्यवर्गीय इलाकों में एक गहरा सवाल खड़ा कर दिया है। यह सिर्फ एक बुजुर्ग की मौत की खबर नहीं है, बल्कि आधुनिक समाज की बेरुखी और अकेलेपन की एक जीती-जागती मिसाल है। कस्बा थाने के केस नंबर 126, जो 8 दिसंबर 2025 को दर्ज हुआ, उसके पीछे छिपी हुई कहानी न केवल दुखद है, बल्कि हमारे समाज के लिए एक कड़वी सच्चाई भी है।
सुमित सेन, जो 64 साल के थे, अपने परिवार के साथ 77जी बोस पुकुर रोड के एक फ्लैट में रहते थे। सेवानिवृत्त जीवन की शांति में उन्हें क्या पता था कि अकेलापन उनके अंतिम दिनों को इतना कठोर बना देगा। उनकी पत्नी आरचना सेन और बेटी सोमप्रिति – दोनों ही मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे हैं। यह एक ऐसा परिवार था जो अपने आप में बंद हो गया था। तीन दिन तक कोई भी उस घर से बाहर नहीं आया। न कोई खरीदारी के लिए, न किसी से मिलने जाने के लिए। केवल अपने चार दीवारों में कैद एक परिवार।
जब पड़ोसियों ने घर से कोई आवाज या गतिविधि नहीं देखी, तो उन्हें चिंता हुई। यह चिंता ही शायद इस समाज की अंतिम जिम्मेदारी थी। लेकिन जब तक पुलिस को सूचना दी गई, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। सुमित सेन का शरीर तो पहले ही निर्जीव हो चुका था। उनकी पत्नी और बेटी अभी भी उसी कमरे में थीं, वास्तविकता से कटे हुए, अपने दर्द में खोए हुए।
शहरी भारत में यह दृश्य कितना परिचित हो गया है। हर मोहल्ले में, हर इमारत में कहीं न कहीं ऐसे परिवार छिपे हैं जो अपनी समस्याओं से जूझते हुए समाज से अलग-थलग पड़ जाते हैं। सुमित सेन का मामला केवल एक व्यक्तिगत त्रासदी नहीं है – यह एक सामाजिक असफलता की कहानी है। एक सेवानिवृत्त व्यक्ति जिसने अपने जीवन भर काम किया, निजी कंपनी में नौकरी की, और अंत में अकेले मर गया। उनके परिवार में मानसिक बीमारी थी, पर कहीं इलाज या सहायता नहीं मिली।
पड़ोसियों की भूमिका इस पूरे प्रकरण में सबसे सकारात्मक पहलू है। उन्होंने खाना भेजकर, ध्यान रखकर अपनी मानवीय जिम्मेदारी निभाई। लेकिन क्या समाज की जिम्मेदारी सिर्फ खाना भेजने तक सीमित होनी चाहिए? मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव, सामाजिक कल्याण विभाग की निष्क्रियता, और पड़ोसियों के बीच गहरे संबंध न होना – ये सभी कारक इस त्रासदी के पीछे काम कर रहे हैं।
सेवानिवृत्ति के बाद का जीवन भारतीय पारिवारिक संरचना में महत्वपूर्ण है। परंपरागत रूप से, बुजुर्गों का ख्याल परिवार करता है। लेकिन जब परिवार ही बीमार हो, मानसिक रूप से खंडित हो, तो समाज को आगे आना चाहिए। सुमित सेन की पत्नी और बेटी को न केवल चिकित्सा सहायता की जरूरत है, बल्कि सामाजिक पुनर्वास की भी। उन्हें समाज में वापस लाने की जरूरत है, उन्हें आश्वस्त करना चाहिए कि वे अकेले नहीं हैं।
कोलकाता एक ऐसा शहर है जहां हजारों परिवार ऐसे छिपे हुए हैं। आधुनिकता की चमक में हम यह भूल गए हैं कि हमारे पड़ोस में कौन रहता है। एक सेवानिवृत्त कर्मचारी को इस तरह मरना नहीं चाहिए था। उनका परिवार इस स्थिति में नहीं होना चाहिए था। लेकिन अब जो हो गया है, हम क्या कर सकते हैं? क्या हम अपने पड़ोसियों को जानने का प्रयास करेंगे? क्या हम मानसिक स्वास्थ्य को अधिक गंभीरता से लेंगे?
यह घटना केवल कस्बा थाने की पुलिस रिपोर्ट नहीं होनी चाहिए। यह एक जागृति का संदेश होना चाहिए। समाज को, सरकार को, गैर-सरकारी संगठनों को मिलकर काम करना चाहिए। हर मोहल्ले में मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता, सामाजिक सहायता नेटवर्क, और वरिष्ठ नागरिकों की निगरानी के लिए एक व्यवस्था होनी चाहिए।
सुमित सेन को श्रद्धांजलि देते हुए, हम प्रण ले सकते हैं कि आगे से अपने पड़ोसियों की खबर लेंगे, उनके साथ संबंध बनाएंगे, और जब किसी को मदद की जरूरत हो, तो आगे आएंगे। क्योंकि एक सुनहरे भारत का सपना तभी सच होगा, जब हर आदमी सुरक्षित, स्वस्थ, और प्रेम का अनुभव करे।