Pakistan Nuclear Weapons: अमेरिकी गुप्तचर अधिकारी का खुलासा, पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम पर अमेरिका ने रचा था राजनीतिक खेल
नई दिल्ली। अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए (CIA) के पूर्व अधिकारी रिचर्ड बार्लो ने पाकिस्तान के परमाणु हथियार कार्यक्रम को लेकर बड़ा खुलासा किया है। उनका कहना है कि 1980 के दशक में अमेरिका की सरकारों ने जानबूझकर पाकिस्तान की परमाणु महत्वाकांक्षा को नजरअंदाज किया। उन्होंने कहा कि अमेरिका ने राजनीतिक हितों के चलते पाकिस्तान को न केवल सैन्य सहायता दी, बल्कि उसे ऐसे एफ-16 लड़ाकू विमान भी दिए जिन पर परमाणु हथियार लगाए जा सकते थे।
रिचर्ड बार्लो का सनसनीखेज खुलासा
रिचर्ड बार्लो ने बताया कि 1989 तक हर अमेरिकी राष्ट्रपति यह दावा करते रहे कि पाकिस्तान परमाणु हथियार नहीं बना रहा है। लेकिन खुफिया एजेंसियों के पास इसके उलट सबूत थे। उन्होंने कहा कि सीआईए इस स्थिति से खुश नहीं थी, पर उसके हाथ बंधे हुए थे क्योंकि वह केवल सूचनाएं दे सकती थी, नीतिगत निर्णय नहीं ले सकती थी।
बार्लो के अनुसार, “हम निर्वाचित अधिकारी नहीं थे। हमारा दायित्व केवल सटीक खुफिया जानकारी देना था। आगे क्या करना है, यह निर्णय राष्ट्रपति और कांग्रेस का होता था।”
ब्रास टैक संकट और परमाणु तनाव का दौर
1987 में भारत और पाकिस्तान के बीच ‘ब्रास टैक संकट’ के दौरान दुनिया पहली बार इस क्षेत्र में परमाणु युद्ध के खतरे से रूबरू हुई। बार्लो ने कहा कि उस समय डॉ. अब्दुल क़दीर ख़ान, जिन्हें पाकिस्तान का ‘परमाणु पिता’ कहा जाता है, ने सार्वजनिक रूप से संकेत दिया था कि पाकिस्तान परमाणु संपन्न बन चुका है।
उन्होंने याद किया कि न्यू यॉर्कर पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट में उस समय यह खुलासा हुआ था कि पाकिस्तान ने सफलतापूर्वक परमाणु क्षमता हासिल कर ली है। यह वही दौर था जब भारत की सैन्य तैयारियों और पाकिस्तान के जवाबी रवैये ने पूरे दक्षिण एशिया को युद्ध के मुहाने पर ला खड़ा किया था।
पाकिस्तान के एफ-16 विमानों का रहस्य
Pakistan Nuclear Weapons: रिचर्ड बार्लो ने आगे बताया कि 1993 में एक अन्य अमेरिकी रिपोर्ट में यह उजागर हुआ कि पाकिस्तान अपने एफ-16 लड़ाकू विमानों में परमाणु हथियार रखने की योजना बना चुका था। उस समय पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो को इस गोपनीय कार्यक्रम से दूर रखा गया था।
यह पूरा नियंत्रण सेना प्रमुख जनरल मिर्जा असलम बेग और राष्ट्रपति गुलाम इशाक खान के हाथ में था। उन्होंने परमाणु परीक्षण और मिसाइल तैनाती को रणनीतिक गोपनीयता में अंजाम दिया।
अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ क्यों दिया?
बार्लो ने इस प्रश्न पर भी प्रकाश डाला कि अमेरिका ने जानबूझकर पाकिस्तान के इस परमाणु कार्यक्रम पर आंख क्यों मूंद ली। उन्होंने बताया कि उस समय अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ युद्ध चल रहा था। अमेरिका को इस संघर्ष में पाकिस्तान की सामरिक सहायता की जरूरत थी।
1989 में जब सोवियत सेना अफगानिस्तान से पीछे हटी, तब अमेरिका ने अपने हित साधने के लिए पाकिस्तान के परमाणु परीक्षण को नजरअंदाज कर दिया। अमेरिका के लिए उस समय अफगानिस्तान प्राथमिकता था, न कि परमाणु प्रसार की रोकथाम।
सीआईए की सीमाएं और राजनीतिक दबाव
रिचर्ड बार्लो ने माना कि सीआईए के भीतर कई अधिकारी पाकिस्तान की इस नीति से असहमत थे। लेकिन राजनीतिक दबाव के चलते किसी ने खुलकर विरोध नहीं किया। उन्होंने कहा कि “खुफिया एजेंसियां केवल सलाह देती हैं, निर्णय नहीं लेतीं। जब नेतृत्व राजनीतिक समझौता कर लेता है, तो एजेंसियां कुछ नहीं कर सकतीं।”
विशेषज्ञों की राय
अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञों के अनुसार, बार्लो का यह खुलासा अमेरिका की दोहरी नीति को उजागर करता है। एक ओर अमेरिका अन्य देशों पर परमाणु प्रतिबंध लगाता रहा, वहीं अपने रणनीतिक साझेदारों के परमाणु कार्यक्रम पर चुप्पी साधे रहा। इसने दक्षिण एशिया की सुरक्षा संतुलन पर गहरा प्रभाव डाला।
रिचर्ड बार्लो के इस बयान से यह स्पष्ट होता है कि शीतयुद्ध काल में अमेरिका ने अपने भू-राजनीतिक हितों के आगे वैश्विक परमाणु सुरक्षा के सिद्धांतों को पीछे छोड़ दिया। पाकिस्तान के परमाणु कार्यक्रम पर यह नया खुलासा दक्षिण एशिया में स्थायी शांति और पारदर्शिता की मांग को फिर से मजबूत करता है।