एक मत से सुनाया गया, आस्था से ऊपर सैन्य अनुशासन
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारतीय सेना में किसी भी प्रकार का निजी धार्मिक मत, सैन्य अनुशासन से ऊपर नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट ने एक पूर्व ईसाई अधिकारी सैमुअल कमलेसन की याचिका ठुकराते हुए कहा कि सेना में ऐसे लोग नहीं रह सकते जो निजी आस्था के आधार पर वैध आदेश का पालन करने से इनकार करें। अदालत ने उनके व्यवहार को सेना की गरिमा के विरुद्ध और अत्यधिक अनुशासनहीन बताया।
इस फैसले के बाद भारत की सेना और धर्मनिरपेक्षता पर चल रही चर्चा फिर से सामने आ गई। यह मामला अनेक नैतिक, कानूनी तथा सामाजिक प्रश्न भी खड़े करता है। क्या सेना में व्यक्ति की धार्मिक पहचान लागू रह सकती है? क्या सेना में सेवा देते समय आस्था की सीमाएँ होती हैं? और क्या किसी धार्मिक नियम को सैन्य आदेश से ऊपर रखा जा सकता है? इन सवालों का उत्तर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि जहां वर्दी की जिम्मेदारी शुरू होती है, वहां निजी आस्था पीछे रह जाती है।
मामला क्या था और विवाद क्यों बढ़ा?
सैमुअल कमलेसन मार्च 2017 में भारतीय सेना की तीसरी घुड़सवार रेजिमेंट में तैनात थे। वह एक ईसाई अधिकारी थे। ड्यूटी के दौरान उन्हें अपनी यूनिट के कई धार्मिक समारोहों और सामूहिक परेडों में शामिल होना था, जिनमें मंदिर और गुरुद्वारे जैसे स्थान भी आते थे। सेना में यह परंपरा पुरानी है कि प्रत्येक जवान, चाहे किसी भी धर्म का हो, अपने साथियों की धार्मिक परंपराओं का सम्मान करता है। यह धार्मिकता नहीं, बल्कि सैन्य एकता का प्रतीक होता है।
लेकिन कमलेसन ने मंदिर और गुरुद्वारे में प्रवेश करने से मना कर दिया। उनका तर्क था कि ईसाई होने के कारण वह इन स्थानों में नहीं जा सकते। वह बार-बार आदेश मिलने के बाद भी रेजिमेंटल परेड के दौरान गुरुद्वारे और मंदिर के मुख्य हिस्से में प्रवेश करने से इंकार करते रहे। सेना ने कई बार उन्हें समझाने का प्रयास किया, यहां तक कि एक ईसाई पादरी ने भी उन्हें बताया कि ‘सर्व धर्म स्थल’ में जाना ईसाई धर्म के विरुद्ध नहीं है, परंतु उन्होंने ऐसा करने से इनकार ही किया।
इसी अनुशासनहीन व्यवहार के कारण 2021 में सेना ने उन्हें सेवा से हटा दिया और उनके खिलाफ कार्रवाई को पूर्ण रूप से सही माना।
दिल्ली हाई कोर्ट ने भी किया था इंकार
कमलेसन ने पहले यह मामला दिल्ली उच्च न्यायालय में उठाया था। दिल्ली हाई कोर्ट ने मई 2024 में स्पष्ट शब्दों में कहा कि उन्होंने अपने धर्म को सेना के वैध आदेश से ऊपर रखकर गंभीर अनुशासनहीनता की। न्यायालय ने कहा कि यह भारतीय सेना की मूल भावना और सैन्य संस्कृति के विरुद्ध है।
अदालत ने यह भी कहा कि सेना में व्यक्ति की धार्मिक मान्यता निजी क्षेत्र तक सीमित होती है। वर्दी में रहते हुए वह केवल सैनिक होता है, किसी धर्म का प्रतिनिधि नहीं।
सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जिसमें मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाला बागची शामिल थे, ने दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को सही ठहराया। सुनवाई के दौरान अदालत ने स्पष्ट किया कि सैनिक की जिम्मेदारी केवल खुद तक सीमित नहीं होती, बल्कि उसकी भूमिका सेना की एकता और सम्मान से जुड़ी होती है।
मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत ने टिप्पणी की कि सेना में झगड़ालू या आदेश न मानने वाले व्यक्तियों के लिए कोई जगह नहीं हो सकती। उन्होंने कहा कि कमलेसन, चाहे जितने भी कुशल अधिकारी रहे हों, परंतु उनका रवैया सेना के अनुशासन को तोड़ता है और वे इसके लिए उपयुक्त नहीं हैं।
न्यायमूर्ति जॉयमाला बागची ने कहा कि धर्म की व्यक्तिगत व्याख्या को वर्दी के अनुशासन पर लागू नहीं किया जा सकता। उन्होंने इस तर्क को खारिज किया कि कमलेसन की धार्मिक भावना उन्हें मंदिर या गुरुद्वारे में प्रवेश करने से रोकती है। अदालत ने यह भी कहा कि ईसाई धर्म में ऐसा कोई अनिवार्य तत्व नहीं है, जो अन्य धार्मिक स्थानों में प्रवेश को वर्जित करता हो।
संविधान, धर्म और सेना के अनुशासन का संबंध
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की कि संविधान नागरिकों को धर्म पालन की स्वतंत्रता देता है, परंतु इस स्वतंत्रता की सीमा वहां समाप्त होती है जहां सैन्य अनुशासन की आवश्यकता शुरू होती है। वर्दी में निजी आस्था का पालन सीमित हो जाता है, क्योंकि सेना का काम धर्म आधारित नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा पर आधारित होता है।
इसके साथ कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सेना एक पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष संस्था है, इसलिए किसी भी प्रकार की व्यक्तिगत धार्मिक व्याख्या को आदेश का पालन न करने का आधार नहीं बनाया जा सकता।
क्या यह मामला सेना की धार्मिक रेजिमेंटों से जुड़ता है?
सुनवाई के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता ने यह प्रश्न उठाया कि जब सेना में जाट, राजपूत आदि नाम की रेजिमेंटें हैं, तो उसे धर्मनिरपेक्ष कैसे कहा जा सकता है? इस पर कोर्ट ने कहा कि ये जातिगत या सांस्कृतिक पहचान वाली रेजिमेंटें हैं, और इनका उद्देश्य परंपरा और सामूहिक मनोबल को बनाए रखना है, न कि धार्मिक विभाजन करना।
अदालत ने इस दलील को अस्वीकार करते हुए स्पष्ट किया कि चाहे रेजिमेंट का नाम किसी समुदाय पर आधारित हो, परंतु उसकी भूमिका, नियम और कर्तव्य केवल राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए होते हैं, धर्म के लिए नहीं।
सैन्य आचार और सामाजिक सीख
यह मामला केवल कानूनी विवाद नहीं है, बल्कि समाज के लिए एक सीख भी है। सेना में अलग-अलग धर्म, भाषा और क्षेत्र के लोग एक ही राष्ट्र के लिए समर्पित होकर काम करते हैं। उनका लक्ष्य केवल देश की रक्षा करना होता है। ऐसे में यदि कोई सैनिक निजी विश्वास को सामान्य आदेश से ऊपर रखे, तो यह केवल उसके लिए नहीं, बल्कि पूरे दल के लिए खतरा हो सकता है।
भारतीय सेना की ताकत उसकी एकता में है, और यह एकता धर्म से नहीं, जिम्मेदारी से बनती है।